शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

भूख, भोजन और आध्यात्म !


भूख, भोजन और आध्यात्म इन तीनों का बड़ा गहरा परस्पर सम्बंध लगता है ! अभी कुछ दिन पूर्व एक आध्यात्मिक शिविर में जाना हुआ ! शहर के कई जाने माने लोग आये हुये थे ! स्वामीजी का प्रवचन सुनने को ! शिविर के कुछ दुरी पर चाय कॉफ़ी के अलावा बहुत सारी खाने की चीज़े रखी हुई थी स्टॉलों पर ! कुछ वालंटियर संस्थाओं ने इनका आयोजन किया हुआ था ! जैसे ही दो घंटे का स्वामी जी का प्रवचन समाप्त हुआ लोग टूट पड़े थे खाने पीने की इन चीज़ों पर, जैसे की बरसों से भूखे हो ! पलक झपकते ही सब कुछ ख़तम हो गया ! "भूखे भजन न होय" वाली बात तब मेरी समझ में आई ! कभी-कभी मन में संशय आता है कि भोजन हमारी शारीरिक ज़रूरत है या मानसिक ? क्यों कि जितने भोजन की कम मात्रा में हमारा पेट भरता है उतने में मन नहीं भरता !  उस पर भोजन चट-पटा और स्वादिष्ट हो तो, और क्या बात है ! आज कल अध्यात्मिक शिविरों में भी हम खूब एन्जॉय कर सकते है ! जैसे कि पॉपकॉर्न खाते हुए हम मूवी देखते है ना बस वैसे ही ! कितना आसान हो गया है ना आजकल सब कुछ ? 
शायद इसी खा-पी कर फल-फूल रही संस्कृति को देख कर ही इन दिनों उपदेशकों की बाढ़-सी आ गयी है ! सलाह देने की, यह मत खाओ वो मत खाओ वगेरे-वगेरे ! हमारी सहज स्वाभाविक भूख को भी कोई दुसरे निर्धारित करे इससे गुलामी की और क्या बात हो सकती है ? भूख प्राकृतिक ज़रूरत है ! भूख मुझे भी लगती है, आपको भी लगती है हम सबको लगती है ! भूख उपदेशक को भी लगती है बस किसी-किसी की भूख स्थूल होती है और किसी की थोड़ी सूक्ष्म होती है ! भूख और भूखों के प्रति मेरे मन में कोई निंदा का भाव नहीं है, यकीन मानिये ! इस प्राकृतिक जरुरत  के लिये भोजन प्यार से आराम से खाईये ! बस इतना ज़रूर ध्यान देने की जरुरत है की, हमारे आस-पास कोई भूखा तो नहीं है !   

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

वर्ष एक बीत गया !


वर्ष २०११ का यह अंतिम महिना है ! बस कुछ ही दिनों में नया वर्ष आने वाला है !
आईए हम सब मिलकर हर्ष और उल्लास के साथ इस वर्ष को विदा करते है !
और पुरे उत्साह और आनंद के साथ नए वर्ष का स्वागत करते है !

एक पल आया 
एक पल गया 
एक पल हँसा गया 
एक पल रुला गया 

जीवन पाटी पर कभी गम के 
कभी खुशियों के रंग भरकर 
दिवस एक बीत गया 
वर्ष एक बीत गया !

समय कहाँ कब रुकता है 
कालचक्र चलता रहता है 
कभी आशा है कभी निराशा 
सफलता में छुपी असफलता 

सुख-दुःख में बंधा है जीवन 
धूप-छाँव का खेल तमाशा 
दूर है मंजील, राही अकेला 
रात है छोटी सपने ज्यादा 

जो साकार इन्हें है करना 
कदम कहते है रुक जाना 
समय कहता है चलते जाना 
दूर मंजील को है पाना 

दिवस एक बीत गया 
वर्ष एक बीत गया !

http://sumitpatil88.blogspot.com/2011/12/joe-satriani-art-of-expression.html 

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

आने वाले समय में ......


आने वाले समय में 
चिड़ियों की चह-चहाट
गुम हो जाएगी !
सुबह सवेरे हमें 
मोबाईल फोन से 
जगाया करेंगी !

बुद्धिवादी युग में 
मनपर निरंतर 
शब्द, विचार 
ध्वनियों के
आघात से,
मनकी शांति  
सिर्फ 
शब्दकोश में 
रह जाएगी !

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

कवि और कौवा ....


जिस कवि की मै बात करने जा रहीं हूँ, यह कवि पुराने ज़माने का लगता है ! नहीं तो हमारी तरह आज एक बढ़िया ब्लॉगर होता ! अपनी रचनाओं को ब्लॉग पर रोज छापता और खुश होता ! कमसे कम इस तरह frustrate तो नहीं होता ! खैर कहानी ही पढ़ लीजिये ! आप खुद समझ जायेंगे !

एक कवि जंगल में एक वृक्ष के नीचे बैठा अपनी कवितायें पढ़ रहा था ! और खुश हो रहा था अपनी  कामयाबी पर ! दूर-दूर तक कोई भी नहीं था वहाँ पर ! सिर्फ उस वृक्ष पर एक कौवा बैठा हुआ था ! कवि अपनी कविता में कहने लगा कि, आज मै बहुत खुश हूँ ! आज मै एक प्रसिद्ध कवि होने के साथ-साथ दुनिया में सबसे खुशनसीब इन्सान हूँ! मुझे लगता है कि, मैंने जैसे सारी दुनिया का धन पा लिया है ! इतने में ऊपर बैठा कौवा जोर-जोरसे हंसने लगा ! और कहा ..सो वॉट? इससे क्या हुआ ? कवि कुछ भयभीत कुछ आश्चर्य चकित सा इधर-उधर देखने लगा ! उसने सोचा यहाँ तो कोई भी नहीं है !सिवाय ऊपर बैठे कौए के अलावा ! कवि ने वृक्ष क़ी ओर ऊपर देखकर कहा कौए से, "क्या ये तुम बोल रहे थे ?" ... "निश्चित ही" कौए ने कहा !  "मै ही बोल रहा हूँ ! और तुम्हारी इस  नादानी पर हँस भी रहा हूँ ! क्या तुमने कुछ कवितायें लिखकर सोलोमन का खजाना पा लिया है ? जो इस प्रकार अकड़ रहे हो ? कितने नासमझ हो तुम" कौए ने कहा ! कौए क़ी बात सुनकर कवि को बड़ा गुस्सा आया ! उसने गुस्से से कहा कौए से, "अरे नासमझ कौए तुम क्या समझोगे कविता क्या होती है ? बड़े-बड़े कवि मेरी कविताओं क़ी तारीफ करते नहीं थकते ! और तुम हो क़ी मेरी हर पंक्ति पर सो वॉट ? सो वॉट क़ी दाद दे रहे हो ! नासमझ मै नहीं मुर्ख कौए नासमझ तो तुम हो ! " कवि क़ी इस बात पर कौए ने कहा ! "शायद तुम ठीक कहते हो ! मै जीवन क़ी एक ही कविता क़ी जानता हूँ ! जो जीवन को जानने और समझने से आती है ! बस हम दोनों में फर्क सिर्फ इतना ही है कि, किसीकी नासमझी कविता नहीं बन पाती और किसी क़ी नासमझी कविता  बन जाती है ! " कौए क़ी बात सुनकर कवि गुस्से में अपनी सारी लिखी हुई कविताएँ जमीन पर फेंककर चला गया !

मुझे यह कहानी पढ़कर ऐसा लगा कि, हो न हो कौवा जरुर दार्शनिक रहा होगा ! आप कहते होंगे कौवा और दार्शनिक ? यह कैसे हो सकता है ? मै कहती हूँ क्यों नहीं हो सकता ! जंगल में शेर राजा हो सकता है ! गधा बुद्धु हो सकता है ! लोमड़ी चालाक हो सकती है, तो फिर कौवा दार्शनिक क्यों नहीं हो सकता ? आप इस कहानी को पढ़कर ऐसे ही मजा ले सकते है ! या फिर अपने-अपने मनपसंद अर्थ ढूंड सकते है ! जैसी आपकी मर्जी ! बुद्धि क़ी थोड़ी कसरत भी हो जाएगी ! 

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

सर्दी आयी.....



हवा ठंडी 
रात ठंडी 
               
स्वप्न मीठे 
नींद मीठी 
         
भाये मन को
गोद मीठी 
वसुधा की मृदु 
शय्या पर, निशि ने 
ओढ़ ली 
काली रजाई !
           

               

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

दुनिया एक चित्रशाला है !

सुबह बगीचे में कई रंगों के गुलाब खिल गए ! और साँझ होते ही सब मुरझा गए ! जमीन पर सारी पंखुड़ियाँ झर गई,यह देखकर रचनाकार का मन उदास हो गया ! प्रकृति का सौन्दर्य क्षणभंगुर क्यों है ? काश सब रंग सारा सौन्दर्य शाश्वत होता ? उसने आकाश की ओर देखकर कहा ......हे इश्वर तुमने सौन्दर्य को शाश्वत क्यों नहीं बनाया ? आकाशवाणी हुई, जवाब मिला कि, दुनिया एक चित्रशाला है ! यहाँ रोज रंग बदलते है ! बदलने ही चाहिए ! इसकी रचना ही मैंने मिटने वाले रंगों से बनाई है ! अगर रंग ऐसे ही ठहर गए तो, इन्हें कौन देखना पसंद करेगा ? सब उदास हो जायेंगे ! सारा अस्तित्व ही बेरंग हो जायेगा ! लोग वही-वही सब देखकर बोर हो जायेंगे ! इसलिए हर रोज मै चीजे बदलता हूँ!
रचनाकार ने सोचा इश्वर की बात कितनी सच है ! सच में रोज रंग बदलने चाहिए ....!!

                                                       
                                                      वाह 
                                                      क्या रंग भरा है 
                                                      तुमने इस दुनिया में,
                                                      या फिर मेरे 
                                                      इन नयनों में !

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

बेटी का जन्मदिन है!

संयुक्त परिवार टूटकर उनकी जगह आये है अब एकल परिवार ! पहले पापा अपने काम काज में व्यस्त रहा करते थे ! अब मम्मी भी बाहर के क्षेत्र में व्यस्त हो गई है ! कभी वह अपने बच्चों की बेस्ट फ्रेंड और प्रथम गुरु हुआ करती थी ! समाज में, अपनी नजर में उसे भी तो अपनी पहचान बनानी है ! यह जरुरी भी है ! घर के हालात और समय की मांग भी यही है कि, वह भी कामकाजी बनकर चार पैसे कमाए ! परिवार में आर्थिक सहयोग करे! वर्ना आजकल इस महंगाई के ज़माने में अकेले आदमी की कमाई कहाँ बस होती है ? खर्चे कितने बढ़ गए है ! नतीजा बच्चे अकेले हो गए है ! उसपर पढाई का बोझ, एकदूसरे से आगे बढ़ने की होड़, गलत माहोल, दोस्तों के बुरी संगत ने बच्चों को बिगाड कर रख दिया है ! ड्रग्स, हुक्का जैसे नशीली चीजों का सेवन कर नशे के आदी हो रहे है ! और अपराधिक गतिविधियों  में भाग लेकर छोटी उम्र में जुर्म जैसे अपराध के दलदल में फंसते जा रहे है! अच्छे-अच्छे महंगे स्कूल-कॉलेजों में पढ़कर भी बच्चे कैसे बिगड़ते जा रहे है ? यही सब सोचकर माता-पिता परेशान हो रहे है ! प्रतिभा को पनपने के लिये चाहिए उचित माहोल, सही शिक्षा बड़ों का मार्गदर्शन ! 
अच्छे संस्कारों की नीव उनके बचपन में ही डालनी चाहिए ! मै बच्चों के प्रति कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हूँ ! क्या करूँ माँ हूँ ना ! खैर, इसपर कभी फुरसत से लिखूंगी ! आज कुछ खास बात आप सबसे शेअर करना चाहती हूँ ! आज मेरी बेटी का जन्मदिन है ! वह इंजीनियरिंग के तृतीय वर्ष में पढ़ रही है ! मेरी बेटी मेरी बेस्ट-फ्रेंड ही नहीं मेरी अच्छी टीचर भी है ! उसीने मुझे कंप्यूटर चलाना सिखाया और ब्लॉग बनाने को प्रोत्साहित किया ! इसके लिये मै उसकी बहुत आभारी हूँ ! आधुनिक युग में  इन सब यंत्रो का उपयोग हम नहीं करेंगे तो बच्चों की नजर में हम आउट डेटेड कहलायेंगे ! और उनके साथ रहकर उनको समझने का यह एक अच्छा अवसर है ! ऐसा मै समझती हूँ ! आपको पता है ? मेरी इस प्यारी और सख्त टीचर के लिये मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में बहुत कुछ करना पड़ता है ! कभी शॉपिंग तो कभी कुछ ! अपने पापा से पॉकेट मनी लेती है इसके अतिरिक्त भी और पैसे मुझसे लेती है ! खैर यह सब हम माँ बेटी की आपस की बाते है ! आपसे कहूँगी तो नाराज हो जाएगी !
उसे बचपन से स्केच बनाना रंगों से खेलना अच्छा लगता है ! उसके दो एक स्केच ब्लॉग पर डाल रही हूँ जो की मुझे बहुत पसंद है ! उम्मीद करती हूँ आप सभी को भी पसंद आयेंगे ! कैसे लगे जरुर बताना ! बच्चे मेरे हो की आपके हो या फिर किसी के भी, हर बच्चा अनूठा है ! उनमे प्रतिभायें भी अलग अलग है ! किसी बच्चे का दुसरे बच्चे से कोई तुलना नहीं हो सकती ! उनकी भावनाओंकी कद्र करनी होगी ! उचित सम्मान करना  होगा ! उनकी प्रतिभा को निखारना होगा ! हर बच्चा यूनिक है मेरे लिये!

प्रकृति को देखिये अपने आप में कई रंग समेटे हुई है ! कुछ रंग स्पष्ट हमें दिखाई देते है और कुछ को देखने के लिये मन की आँखे चाहिए ! साधना चाहिए! जब सामान्य दृश्य भी मन की आँखों से होकर कागज पर उतरते है तो, निश्चित उनका महत्व अधिक बढ़ जाता है !  उर्जा को बहने के लिये सकारात्मक दिशा मिल जाती है ! सृजन के रूप में!

शनिवार, 26 नवंबर 2011

एक पल तो जी ले !

कहाँ मिलेगी
स्नेह तरु की
सघन छाँव !
भटक-भटक कर 
थक गए अब 
ये प्राण !
किसने दिया जो 
ऐसा श्राप
जीवन हुआ 
अभिशाप 
कही ममता की 
छाँव नहीं
जीना कितना 
दुश्वार हुआ !
उगने चाहिए थे
गुलाब 
पेड़ बबुल का
उग रहा !
आओं प्रिय ...
जंगल चले 
पेड़-पौधों की 
छाँव तले !
फूलों संग बैठ 
तितलियों से 
गुफ्तगू कर ले !
प्यार के कुछ
मधुर गीत गायें 
आओं ....
उस मस्ती के 
पल में 
एक पल तो 
जी ले !

रविवार, 20 नवंबर 2011

मॉर्निंग वॉक ...........


जैसे ही सर्द हवाएँ बहने लगी है सर्दी का मौसम आने का संकेत मिल गया ! इस सर्दी में हमें गरमी का अहसास दिलाने अलमारी में कबसे आराम फरमा रहे स्वेटर, शॉल, रजाई सब बाहर निकल कर आ गए है !
सर्दी के इस मौसम में सबको देर तक बिस्तर में दुबक के सोना बहुत अच्छा लगता है ! रोज सुबह जल्दी उठने वाले लोग भी कई बार आलार्म बंद करके फिर सो जाते होंगे है ना ? मेरे साथ भी कई बार ऐसा ही होता है !  सुबह पांच बजे बजने वाली आलार्म बंद कर के फिर सो जाने का मन करता है ! भले ही इन दिनों उठने का मन न करता हो पर अच्छे स्वास्थ्य के लिये उठना तो जरुरी है ! दिनभर के कितने सारे काम जो पड़े रहते है ! काम घर के हो चाहे ऑफिस के दिनभर उर्जावान बने रहना सबके लिये जरुरी है ! उर्जावान बने रहने के लिये हर कोई कुछ न कुछ शारीरिक श्रम करते ही होंगे जैसे की, व्यायाम, यौगिक क्रियाये, ध्यान प्राणायाम वगैरे! इन दिनों मॉर्निंग वॉक भी सेहत के लिये बहुत अच्छी होती है ! एक जैसी दिनचर्या से मन उब सा जाता है !
मुझे मौर्निंग वॉक के लिये osmaniya university के आजू-बाजू का जो सुंदर प्रदेश है वही सबसे उपयुक्त लगता है ! बड़े-बड़े वृक्ष, दूर-दूर तक फैली हरियाली, फूलों से लदे पेड़-पौधे बहुत ही रमणीय स्थान है ! सुबह-सुबह यहाँ पर टहलने बहुत सारे लोग आते है ! हमारे घर के बिलकुल पास में है !
जब भी घर से निकलती हूँ सबसे पहले एक अद्भुत नजारा देखने को मिलता है ! वह है हमारे पडोसी मिस्टर शर्मा जी के बाड़े में लगे हुये पेड़ों के सुंदर फ़ूल ! रास्ते से आने-जाने वालों का ध्यान अपनी ओर  आकर्षित कर लेते है ! अभी कुछ दिन पूर्व ही रिटायर्ड हुये वर्मा साहब जब इस रास्ते से टहलने निकलते है तो उनके हाथ में एक प्लास्टिक की थैली होती है ! और वे इन सुंदर फूलों को तोड़-तोड़ कर थैली में भर रहे होते है ! खुद को धार्मिक कहलाने वाले वर्मा जी को देखकर संकोच वश मै तो कुछ कह नहीं पाती ! पर मन में सोचती हूँ की भगवान के चरणों में  अगर फ़ूल चढ़ाना इतना ही जरुरी है तो, चढ़ा देते अपने दो रूपये के खरीदकर ! यह कैसा धर्मिक अपराध है ? क्या इससे भगवान खुश होंगे ? खैर ....इनके अलावा सुबह-सुबह दिखाई देते है अपने सायकल पर घर-घर जाकर पेपर पहुंचाते पेपरवाले, सड़क के बाजू में सुबह चार बजे से ही दूध के पैकेट बेचने बाले दूधवाले, बंडी पर चाय बनाता चायवाला ! सर्दी में गर्मागर्म चाय का मजा लेते लोग ! जैसे जैसे यूनिवर्सिटी का परिसर करीब आने लगता है सुगन्धित हवा नाकसे टकराकर रोम-रोम में नवस्फूर्ति का संचारण कर देती है ! कतारबद्ध वृक्षों को देखकर ऐसा लगता है जैसे अपनी साधना में लीन साधक बैठे है ! दूर-दूर तक हरियाली और उसपर पड़ी ओस की बुँदे मोतिसी चमकती है ! अपने-अपने घोसलों से निकलकर इस शाख से उस शाख पर फुदकते पंछी ! सारा वातावरण इनके मधुर कलरव से भर जाता है ! इन सब नजारों को देखते हुये टहलने का मजा ही कुछ ओर होता है ! तन और मन दोनों प्रसन्नतासे खिल उठते है ! शरीर फिरसे काम करने के लिये रिचार्ज हो जाता है ! सुबह का भ्रमण आपको तरोताजा और उर्जावान बना देता है ! बशर्ते की आपके हाथ में कुत्ता,कानों में इअर फोन और रास्ते पर चलते हुये अपने मित्रों से व्यर्थ की मुद्दों पर बहस बाजी न हो तभी ! प्रकृति हमसे अनेक-अनेक रूप धारण कर बात कर रही है ! लेकिन उसे सुनने के लिये एक संवेदनशील मन भी चाहिए !
जब वापसी में घर लौट रही होती हूँ तो दिखाई देते है वही फूल रहित पेड़ ! बिलकुल सूने-सूने बिना फूलों के ! पर निराश नहीं ! अब भी हरी भरी पत्तियाँ कलियाँ उन पेड़ों की शोभा बढ़ा रहे है, ताकि फिर कल खिलकर आते जाते मनुष्यों को थोड़ी ख़ुशी थोड़ी मुस्कुराहट बाँट सके ! प्रकृति कितना सब हमें देकर भी कितनी खुश है ! है ना ? और हम स्वार्थी मनुष्य उसे वापिस कुछ लौटाना तो दूर की बात उसका अनेक अनेक तरीकों से दोहन करते है ! प्रकृति हमें देकर जितनी खुश होती है उतने हम उससे लेकर भी कभी खुश नहीं होते ! कभी नहीं ...........

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

भला बूंद की क्या औकात जो सागर के बारे में कुछ कह सके !



हिंदी साहित्य को चार भागों में विभाजित किया गया है - आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, और आधुनिककाल ! हर काल में साहित्य का अपना अलग महत्व रहा है ! आज का युग वैज्ञानिक युग है ! इस आधुनिक युग में अद्वितीय चिन्तक, वैज्ञानिक, अभिनव क्रान्ति के प्रस्तोता "आचार्य रजनीश" जिनको सारा विश्व आज "ओशो" के नाम से जानते है ! उनका साहित्य आज के युग की ख़ास पसंद है ! उनका साहित्य तीस से भी अधिक भाषाओं में अनुवादित होकर विश्व के कोने-कोने में पहुँच रहा है ! पूना स्थित उनका ओशो कम्यून इंटरनॅशनल है ! विश्व के लगभग सौ देशो से साधक उनके आश्रम में हर साल आते है और अपने आप को ध्यान और साधना में डूबाते है ! कठिन से कठिन विषय को भी सरल बना कर सरस शब्दों में समझा कर नीरस विषय को भी मनोरंजक बना कर श्रोताओं को बहला फुसला कर अपने लक्ष्य की ओर प्रोत्साहित करना सचमुच ओशो जैसे शिक्षक को ही साध्य है ! वे अपने विचार किसी पर थोपते नहीं बल्कि उनको अंतर दृष्टी देकर सही मार्ग पर चलने को प्रेरित करते है ! बुद्ध, महावीर, मोहम्मद, जीसस. अष्टावक्र, कृष्ण और अनेक संत महात्माओं पर उनके अनेक प्रवचन उपलब्ध  है इतना ही नहीं राजनैतिक सामाजिक समस्याओं पर भी प्रकाश डाला है !

मजेदार बात यह है कि उन्होंने अपने हाथ से कुछ भी लिखा नहीं बल्कि अपने शिष्यों, प्रेमियों द्वारा संकलित किया हुआ है ! शिष्य और सद्गुरु के बीच बोला गया संभाषण है जैसे अभी-अभी सुबह खिले हुए ताज़े फूल !

ओशो का मतलब ओशोनिक (oceanic) याने की सागर ! एक ऐसा महासागर जिसके गर्भ में भिन्न-भिन्न प्रकारके अमूल्य रत्न भरे पड़े है ! यह महासागर कभी बुद्ध जैसा शांत गंभीर दीखता है तो कभी कभी रौद्र रूप धारण कर समाज में फैले अंधविश्वासों झूठी  परम्पराओं को, पाखंडों को  तेज रफ़्तार से बहा ले जाता है !
आज से बीस-बाईस साल पहले ओशो की एक पुस्तक मेरे हाथ में पड़ी ! इस पुस्तक को मैंने पढ़ा तो फिर उनको पढ़ती ही गयी जैसे जैसे घर में विरोध बढता गया वैसे वैसे उनसे लगाव भी बढ़ता गया अंततः प्रेम और श्रद्धा की  जीत हुई ! आज मेरे घर में सभी उनसे प्रेम करते हैं उनके साहित्य को बड़े चाव से पढ़ते है ! उस महासागर की मैं एक छोटी सी बूंद हु भला बूंद की क्या औकात जो सागर के बारे में कुछ कह सके ! मैंने उस सागर को चखा है आप सब से उस स्वाद को एक बार चखने के लिए अनुरोध करती हूँ ! फिर आप, आप नहीं रहेंगे बदल जायेंगे ! जीवन को देखने का दकियानूसी अंदाज़ भी बदल जाएगा ! ओशो कहते है"मेरा सन्देश कोई सिद्धांत, कोई चिंतन नहीं है ! मेरा संदेश तो रूपांतरण की एक कीमिया, एक विज्ञानं है" ! बुद्ध पुरुषों की अमृत धारा में ओशो एक नया प्रारंभ है !

संपर्क सूत्र 
ओशो कम्यून  इंटरनॅशनल
१७, कोरेगांव पार्क, पूणे,
महाराष्ट्र 
web site- http://www.osho.com

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

इस बार दीवाली फीकी रही !


     इस बार दीवाली पर मध्यम वर्ग खासा प्रभावित रहा है ! एक ओर आसमान छूती महंगाई तो दूसरी ओर आंध्र, तेलंगाना के झगडे ! पृथक प्रान्तों को लेकर आन्दोलनों ने इन दिनों आम जनता को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा ! काम धंदे पर इसका असर पड़ने से सबकी जेबे ख़ाली-खाली रही ! जैसे-तैसे जुगाड़ कर त्यौहार पर माता लक्ष्मी का स्वागत हुआ ! परंपरा के अनुसार दीवाली मनाई गई ! लेकिन हर किसी के मन में एक ही प्रार्थना रही की, हे माँ लक्ष्मी जैसे भी हो महंगाई दूर करो और सबके घर आकर हम सबको धन धान्यों से संपन्न कर दो !  पता नहीं माँ लक्ष्मी ने सुना या नहीं !
     मध्यम वर्ग की मजबूरियों का असर इस बार बाजार पर भी काफी पड़ा है ! इस बार खरीददारी करने वाले लोग बहुत कम मात्रा में दिखाई दिये! महंगे पटाखों की वजह से स्टॉलों पर ग्राहक नहीं के बराबर थे ! एक तरह से अच्छा ही हुआ ! आतिशबाजी कम हुई और प्रदुषण कुछ तो कम हुआ ! मुझे तो इस बार दीवाली पर बस एक बात ज्यादा खुश कर गई वह है अपने सेल फोन पर मैसेजेस,"हैप्पी दीवाली" से लेकर विभिन्न किस्म के मेसेजेस जिन्हें पढ़कर आधुनिक युग के इस टेक्निकल दीवाली पर थोडा आश्चर्य हुआ, थोड़ी हँसी आई और साथ में अपनों के नजदीक होने का अहसास भी हुआ ! कुल मिलाकर कुछ कम कुछ ज्यादा सभी ने इस तरह दीवाली मनायी ! 

                                      जीवन भर अंधियारे में जो 
                                      गुजारते है ज़िन्दगी अपनी
                                      आओं उनके द्वार पर हम रख 
                                      आते है एक स्नेह का दीप!  
                                    

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

परंपराओं का अंधानुकरण कितना सही है ! ( स्मृति )


प्रतिदिन अपने चारो ओर विभिन्न तरह की घटनाएँ घटती रहती है ! कही अनुकूल तो कही प्रतिकूल ! हर पल घटती इन घटनाओं को देखते हुए ऐसा लगता है क़ि जीवन घटनाओं का क्रम मात्र है ! कोई इन घटनाओं का मूक अनुभव करता है तो कोई उन्हें रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करता है! ऐसी ही एक घटना का जिक्र मै यहाँ पर कर रही हूँ, जो मेरी स्मृति में बसी हुई है !
स्नेहा, मेरी अच्छी पड़ोसन होने के साथ-साथ अच्छी सहेली भी है ! मेरे और उसके बच्चे एक ही उम्र के होने के कारण अधिकतर इकट्ठे ही खाते-खेलते है ! हमारे पारिवारिक संबंध बहुत ही अच्छे और मधुर है ! स्नेहा स्वभाव से शालीन और सुशील है, पर थोड़ी अंधविश्वासी है ! बिना सोचे-समझे किसी भी बात को आंख मूंदकर मान लेती है ! उसके इस स्वभाव के कारण हम दोनों में कभी-कभी मीठी तकरार भी हो जाती है, किंतु उसका असर हमारी दोस्ती पर कभी नहीं पड़ा ! एक बार स्नेहा क़ी बहन सुनीता, जो अमेरिका में रहती है, अपने परिवार के साथ दिवाली क़ी छुट्टियाँ  मनाने भारत आयी ! बहन के आने क़ी ख़ुशी में स्नेहा के घर दिवाली का आनंद दुगुना हो गया ! दोनों बहने मिलकर खूब सारी तैयारियां करने लगी ! दिवाली का त्योहार आने में कुछ ही दिन बाकी थे ! सुबह से शाम तक खूब सारी शॉपिंग होती, फिर खरीदी गई चीजों पर चर्चा और साथ ही होती बच्चों क़ी मस्ती ! गहने,कपडे, मित्रों-रिश्तेदारों के लिये तोहफे आदि क़ी खरीददारी हो चुकी थी ! सिर्फ लॉकर से त्योहार पर पहनने के लिये स्नेहा के गहने लाने थे, सो वह काम भी हो गया! दिवाली के दिन सुबह से ही दोनों बहने विशेष पकवान बनाने व घर की सजावट में जुट गयी! शाम होते होते सारी तय्यरियाँ पूरी हो गयी ! सारा घर आंगन रोशनाई से भर गया! गली मोहल्ले में आतिशबाजी का शोर बढ़ने लगा! बच्चे बूढ़े बिना भेद-भाव के इसका मज़ा उड़ाने लगे ! फुलझड़ियों की चमक और पटाखों के शोर ने निराला समां बाँध दिया था! बड़ी ही धूम-धाम से लक्ष्मी जी की पूजा की गयी! पकवानों का स्वाद चखने के बाद बारी आई ताश खेलने की! देर रात तक ताश की बाजिया चलती रही! रात के तीन बज गए! स्नेहा के पति घर के दरवाजे व खिड़कियाँ बंद करने की सलाह दे कर अपने बिस्तर पर चले गए! किन्तु स्नेहा  ने यह कहते हुये उनकी बात का विरोध किया कि आज कि रात घर कि खिड़कियाँ व दरवाजे खुले रखने से लक्ष्मी जी घर में प्रवेश करती है! यदि यह सब बंद हो तो लक्ष्मी जी नाराज़ हो कर लौट जाती है! ताश खेलते-खेलते एक-एक करके न जाने सब लोग कब जाकर सो गए पता ही नहीं चला! सुबह दरवाजे के बाहर खड़ी कामवाली बाई ने आवाज़ दी तो आँख खुली! स्नेहा ने कमरे से बाहर जाकर देखा तो  आंख खुली कि खुली रह गयी! चोर सारा कीमती सामान, गहने आदि सब बटोर कर चम्पत हो गए थे! उसमे स्नेहा क़ी बहन का भी काफी सारा सामान था! शायद चोर- समाज में इस बात का विश्वास होगा कि अगर दिवाली के दिन अच्छा माल हाथ लगा तो  वर्ष भर सफलता मिलेगी! अंध विश्वास के चलते स्नेहा और उसके परिजनों को सिवाय पछतावे के कुछ नहीं मिला! त्योहार का सारा उत्साह व जोश तो काफूर हो गया!
इस वैज्ञानिक युग में भी परम्पराओं का अन्धानुकरण पागलपन ही है! परम्पराओं को ज़रूर निभाना चाहिए, किन्तु निश्चित सीमा तक ही! हमारा समाज कभी मानसिक व भौतिक रूप से इतना संपन्न रहा होगा कि किसी को दरवाजे लगाने और किसी को चोरी करने कि ज़रूरत ही रही नहीं होगी! आज चारो ओर भौतिक संपदाए तो बढ़ रही है पर आदमी तंग दिल होता जा रहा है! भौतिक संपदाए हमें आराम तो देती है पर वास्तविक रूप से मन को आनंद प्रदान नहीं कर सकती! वास्तविक आनंद तो एक दुसरे के प्रति प्रेम व सौहार्द्र से ही मिलता है क्योंकि प्रेम ही एक ऐसा सेतु है, जो एक को दुसरे से जोड़ता है! 
मिट्टी के दिये घर-आंगन को ही प्रकाशित करते है! किन्तु मन का अंधकार दूर करने के लिये हमें ज्ञान के प्रकाश क़ी छोटी- सी किरण क़ी ज़रूरत होती है, जिसका अनुसरण कर प्रकाश के स्त्रोत तक पहुंचा जा सकता है! और जीवन को आलोकित किया जा सकता है! तभी तो हम वास्तविक अर्थों में दिवाली मना सकेंगे! अज्ञान ही अंधकार है और ज्ञान ही प्रकाश !  आप सब क़ी दीवाली शुभ हो !

(हिंदी मिलाप पत्रिका में पुरस्कृत रचना!)   

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

मेरा चाँद ....



कैसे करे कोई 
उसका दीदार 
मेरा चाँद तो,
बादलों के शहर में 
रहता है 
छूना तो 
दूर की बात 
टकटकी 
लगाने से ही 
मैला हो जाता है !


( मन चंद्रमा का प्रतीक है )

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

मुहब्बत की चाँदनी खिली है ..........



शरद चाँदनी खिली है 
अब छोड़ो भी बहाना 
जैसे भी हो 
आओं छतपर 
रात है नशीली चाँदनी 
नशीला आज मन भी 
बात है कुछ खास 
तनिक बैठो पास 
कुछ कह लेने दो 
कुछ सुन लेने दो 
धडकनों को 
आपस की बात 
आओं 
चाँदनी ओढ़े 
बिछाये चाँदनी
हम- तुम 
आकंठ पिये
अंजुली भर-भर कर 
मुहब्बत की चाँदनी
खिली है !

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

"कैफे दि हैवन"

रावण अपने ही वध क़ी दशहरे पर चल रही तैयारियों को देखता हुआ, शहर में चल रहे हंगामे को देख कर अचंभित-सा होता हुआ टहलते हुए एक कैफे में दाखिल हुआ ! कैफे का नाम था "कैफे दि हैवन" !  सच में स्वर्ग जैसी सारी सुविधाएँ उसमे उपलब्ध थी! कॉफ़ी से लेकर सोमपान तक! रावण ने वेटर को बुलाया और मीनू लेकर आने को कहा ! उसने मीनू पर एक नजर डाली ! गरम-गरम कॉफ़ी पीने का मन हुआ ! उसने देखा कि ५० रूपये एक कॉफ़ी के लिये ! वेटर को कॉफ़ी लाने का आर्डर दिया! कॉफ़ी पीकर रावण का मन बड़ा प्रसन्न हुआ ! रावण ने वेटर को बिल लाने को कहा ! बिल आया ५०० रूपये का ! रावण एकदम क्रोधित हुआ और वेटर से कहा .."पागल तो नहीं हो तुम ? मीनू में साफ-साफ लिख़ा हुआ है ५० रूपये और तुम बिल लाये हो ५०० रूपये का" ! रावण का विकराल रूप देख कर वेटर थर-थर कांपने लगा ! उसने डरते-डरते कहा शांत रहिये मै अपने मैनेजर को बुलाकर लाता हूँ ! उतने में मैनेजर भी शोर सुनकर दौड़ता हुआ आया ! और रावण से क्रोध  का कारण जानकर कहा- "श्रीमान आप ठीक कहते है कॉफ़ी ५० रूपये ही है, लेकिन जरा गौर से ध्यान से मेनू पढ़िए ! ५० रूपये लिख़ा है मीनू में पर हेड ! और आपके तो दस सिर है इसलिए ५०० रूपये का बिल आया है !" मैनेजर ने बड़ी शांति से जवाब दिया ! और रावण ने अपने दसो सिर पिट लिये !
    
         पाठक सोच रहे होंगे राम द्वारा रावण का वध तो कब का हो चूका है ! फिर रावण कैफे दि हैवन कैसे पहुँच सकता है ? कैसे कॉफ़ी पी सकता है ?
खैर यह तो एक मजाक था पर, जिस प्रकारसे हमारे देश में भ्रष्टाचारी रावण आम जनता के हक्क को छिनकर देश को लुट रहे है ! और हम ऐसे रावणों को छोड़कर लंकापति रावण के कागज के पुतले को कब तक जलांयेंगे ?  दशहरे पर हमारा इस प्रकारसे  हर साल रावण को जलाना ही साबित करता है कि रावण जला नहीं है ! जलकर भी अमर हुआ है ! आखिर है तो मायावी..........मजा तो तब है जब ऐसे भ्रष्टाचारी रावण जलेंगे.!

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

परमात्मा की वीणा !

एक दिन कबीर ने देखा की, एक बकरा रास्ते से मै-मै करता हुआ जा रहा था ! फिर एक दिन वह मर गया ! और किसी ने उसकी चमड़ी उतार कर तानपुरे के तार बना दिए ! तानपुरे पर इतना सुंदर गीत बजने लगा की, जो भी देखता, सुनता तारीफ करने लगता ! कबीर ने भी इतने सुंदर गीत को सुनकर उस आदमी से पूछा की, कहाँ से पाया है तुमने इतना सुंदर तानपुरा ? उस आदमी ने कहा आपने देखा होगा वह बकरा जो रोज यहाँ से गुजरता था ! मै-मै-मै किये जाता था ! यह वही है ! बेचारा मर गया ! मै-मै करने वाला वही बकरा अब तानपुरे का तार बन गया है ! और सुंदर संगीत पैदा कर रहा है !
कबीर यह बात सुनकर खूब हसने लगे ! यह तो क्या खूब कही जिन्दा बकरा जीवन भर मै-मै करता रहा और मरकर क्या खूब संगीत बजा रहा है ! और लौटकर अपने साथियों से कहा कितना अच्छा होता हम भी मर जाते ! छोड़ देते इस मै-मै को ! अभी- अभी मै एक चमत्कार देखकर आ रहा हूँ ! एक जिंदा बकरा कभी गीत गा न सका पर मरकर सुंदर गीत गाने लगा है !
किस मरने की बात कर रहे है कबीर ? कही हमारे अहंकार के मरने की तो बात नहीं कर रहे है ? जी हाँ कबीर हमारे इसी फाल्स इगो के बारे में कह रहे है जो समय के साथ और भी ठोस बनता गया है ! मै भी कुछ हूँ का भाव ! जब तक मै-मै करने वाला हमारा मन परमात्मा की वीणा नहीं बन जाता तब तक, हम अपने नेगेटिव विचारोंसे किसी के ह्रदय को चोट पहुंचाते रहेंगे और स्वयं को भी चोट पहुंचाते रहेंगे !

सोमवार, 19 सितंबर 2011

सवेरे सवेरे

सवेरे सवेरे
मीठे सपनों में
मै खोई हुई थी
इस कदर नींद कुछ
गहरा गई थी
क़ि झटके से टूट गई
ये किसने दी आवाज मुझको
सवेरे सवेरे !

उषा कबसे खड़ी
स्वर्ण कलश लिये
हाथ में
किसकी अगवानी में
हवायें मीठी तान सुनायें
पंछी गीत मधुर गायें
दूर-दूर तक राह में,
कौन बिछा गया
मखमली चादर हरी
सवेरे सवेरे !

कहो किसके स्वागत में
पलक-पावडे बिछाये
इस किनारे पेड़
उस किनारे पेड़
और बीच पथ पर
लाल पीली कलियाँ
किसने बिछाये है फूल
सवेरे सवेरे !

बुधवार, 14 सितंबर 2011

हमारे दिमाग में कौन कचरा डाल रहा है?

कल ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम ने गणेश विसर्जन के बाद चलाये गए विशेष अभियान में १,३०० मेट्रिक टन अतिरिक्त कचरा नगर की सड़कों पर से उठाया है! कचरा भी बड़ा अजीब होता है! है ना? जितना साफ़ सफाई करो उतनाही बढ़ता जाता है! इधर ब्लॉगिंग की वजह से, मेरा भी आजकल घर की साफ-सफाई पर विशेष दुर्लक्ष हो रहा है! सच है किसी ने कहा ब्लॉग एक नशा है और नशा कितना भी अच्छा क्यों न हो बुरा होता है! घर पर मैंने भी कल से सफाई अभियान शुरू किया है! किन्तु कचरा है की खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है! पर साफ-सफाई की दौरान एक बात जरुर मेरी समझ में आ गई है कि, हमारे विचार भी इस कचरे जैसे ही है! जितना उलीच कर ब्लॉग पर डाल दो उतने ही फिरसे पैदा होते जाते है! इनके प्रोडक्शन में कोई कमी नहीं आती! इस कचरे के भी कई किस्मे है! घर-परिवार वालों ने डाला हुआ कचरा, समाज ने डाला हुआ कचरा, पुस्तकों ने डाला हुवा कचरा! फ़िलहाल इतना बस है! हम बचपन में नासमझ थे इसका महत्व समझ नहीं पायें! अब तो हम बच्चे नहीं रहे! बचकानी हरकतों से बाज कब आयेंगे हम? क्यों इस कचरे को इतना महत्व देते है? मेरी समझ में तो आजतक यह बात नहीं आयीं है! इसको इतना सम्भाल कर रखते है जैसे की हीरे-जवाहरात हो, इतने कीमती की इसके खिलाफ एक आलोचना भी हमें तोड़कर रख देती है! इसी कचरे की खातिर बड़े-बड़े षड्यंत्र, कूटनीति तक चलती है! शब्दों की तलवारे नीकल आती है! महाभारत जैसी लड़ाई देखने को मिलती है! जिनको हम अपने बहुत दिल के करीबी मित्र समझते है कभी-कभी ग़लतफ़हमीयो की वजह से, उनको भी खो बैठते है! कई लोगों के दिल टूट जाते है और लिखने से कुट्टी तक कर लेते है लोग! फिर भी ब्लोगिंग में ऐसा कुछ खास है जो हमें यहाँ बाँध कर रखता है! सिगमंड फ्रायड ने कहा है की मनुष्य बिना झूठ के जी नहीं सकता! कही यही तो वह झूठ नहीं है? जिससे हम खुद को भरा पूरा समझते है और दुसरोंको कुछ भी नहीं! सफाई अभियान के दौरान उपजा मेरे इस कचरा चिंतन पर आप भी जरा सोचिये! तब तक, मै अपना बाकी सफाई अभियान ख़त्म करके आती हूँ!


 



शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

प्रीति-बंध

किसी की प्रशंसा में
फूल खिलते नहीं है
पंछी गीत गाते नहीं
तितलियाँ पंख अपने
रंगती नहीं है !
किसी की समीक्षा
के लिये नदी
रूकती नहीं है !
पहाड़ों, जंगलों को
काटती रंभाती नदी
अनवरत बहती
चली जाती है
सागर है  उसका
एक लक्ष !
हवा रूकती नहीं
नदी रूकती नहीं
तो फिर, तुम
किसकी प्रतीक्षा में
रुके हुये हो
ओ मेरे मन
तुम भी चल दो
तोड़कर प्रीति-बंध !

बुधवार, 31 अगस्त 2011

धार्मिक आस्था के साथ रखे पर्यावरण का ध्यान !



जीवन में शोक, चिंता और दुखों को भुलाकर मनुष्य सब के साथ बैठकर कुछ पल हँस सके, गा सके, नाच सके इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही हमारे त्यौहार बने होंगे! इसके अलावा हमारे हर त्यौहार अपना-अपना ऐतिहासिक, सामाजिक महत्त्व भी रखते है! अब कल से दस दिनों तक चलने वाला हमारा पवित्र त्यौहार है गणेश चतुर्थी! लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने गणेश पूजा की परंम्परा को संवारकर जनसंघर्ष का मार्ग प्रशस्त किया! धर्म, संस्कृति और अस्मिता को जीवंत कर तिलक जी ने राष्ट्रिय जनचेतना को एकसूत्र में आबद्ध किया! किन्तु आज त्योहारों के पीछे जो सदभावनाएँ है उसे भुलाकर त्यौहार केवल मौज, मस्ती और दिखावे भर के रह गए है! दस दिन के  इस उत्सव के बाद आता है, हर साल की तरह गणपति विसर्जन! हमारे हैदराबाद शहर में हुसैन सागर, जिसे टैंक बंड भी कहते है सभी को देखने लायक मनोरंजक स्थल है! इस टैंक बंड के बिचोबीच भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा सारे परिसर को एक अनोखा सौन्दर्य प्रदान करती है! कभी मेरा यह प्रिय स्थान रहा है......! टैंक बंड के बस थोड़ी दूर पर ऊँची पहाड़ियों पर बसा है बिरला मंदिर! अगर आप रात के समय टैंक बंड के किनारे बैठ कर बिरला मंदिर को देखेंगे तो ऐसा लगेगा मानों स्वर्ग धरती पर उतर आया है! जगमग दीपों की रौशनी पानी पर देखते बनती है ! कई वर्षों से गणेश विसर्जन यहीं पर होता है! सो अब की बार भी यही होगा! भले ही इस सागर का पानी पीने के लिये उपयोग में नहीं लाया जाता पर, सुना है की यहाँ टैंक बंड पर जो लोग मोर्निंग वाक् के लिये जाते है उनके स्वास्थ्य पर जल प्रदूषण का बुरा असर पडने लगा है! प्रदूषित जल अनेक बिमारियों को न्योता भी देता है! हर शहरों में यही हो रहा है! भले ही गणेश विसर्जन की परंपरा लोकमान्य तिलक के ज़माने से आ रही है, पर आज वो पहलेवाली परिस्थितियाँ नहीं रही ! तब गणेश की छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाई जाती थी! वह भी नदी तट की गीली मिट्टी से बनाये जाते थे ! जो आसानी से विसर्जन के बाद पानी में घुल जाती थी! आज गणेश की मूर्तियाँ बड़ी-बड़ी और हजारों, लाखों रूपये की बनाई और खरीदी जाती है! इन मूर्तियों के प्रयोग में लगने वाला तत्व और रंगों में जो केमिकल्स का प्रयोग होता है वह अनैसर्गिक तो होता ही है उससे जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण भी होता है! कितना अच्छा होता यदि हमारी मिडिया, हमारी सरकार, सामाजिक  संस्थायें इसपर जनजागरूक अभियान चलाते!
सागर, नदियाँ, झीले हमारी प्राकृतिक धरोहर है इनकी रक्षा करना हम सबका कर्तव्य है! आज त्यौहारों को अंधश्रद्धा की नजर से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने की जरुरत है! वर्ना यह एक गंभीर समस्या बन सकती है!



( सभी ब्लोगर मित्रों को ईद और गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनायें )


शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

जीवन के प्रति सकारात्मक सोच

जिंदादिल, खुशमिजाज व्यक्तित्व का सीधा संबंध हमारे अपने स्वभाव पर ही निर्भर करता है! आपने देखा होगा कुछ लोग बात-बात पर चिढ़ते है! दूसरों की कामयाबी पर कुढ़ते है! हमेशा कटु वचन बोलना, व्यंग्यात्मक लहजा अपनाना, छोटी-छोटी बातोपर लड़ाई-झगडा करना इनके स्वभाव में  शामिल होता है! धीरे-धीरे इस प्रकार का स्वभाव इनकी रोजकी आदत बन जाती है! तब उनके अपने लोग ही पराये बन जाते है! नाते रिश्तेदार तक उनसे दूर रहना पसंद करते है! परिवार में अपने ही लोगों का स्नेह, सम्मान घटने लगता है! ऐसे व्यक्ति समाज से कटकर अंत में निपट अकेले रह जाते है! इनसे उलट कुछ व्यक्ति हमेशा हँसते-खेलते प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सदा प्रसन्न दिखाई देते है! उनके इस जिन्दादिली, खुशमिजाजी का राज है जीवन के प्रति सकारात्मक सोच और संवेदनशीलता! इसके अलावा मोर्निंग वाक्, योग, ध्यान, प्राणायाम, पौष्टिक और संतुलित आहार, इन सब का भी जीवन में बड़ा महत्व है ! जो नियमित व्यायाम, मोर्निंग वाक् करते है वे सदा स्वस्थ और दीर्घजीवी रहते है! घर का काम हो चाहे आफिस,  काम करना पैसे कमाना हमारी रोजमर्रा की अनिवार्य जरुरत है! दिन के चौबीस घंटों में अगर एक घण्टा हमारे स्वास्थ्य पर, खुश रहने के लिये  खर्च करेंगे तो क्या बुराई है ? इसके लिये हमें पैसे तो चुकाने नहीं पड़ते! अगर खुशिया मुफ्त में मिल रही है तो क्यों चूकना?
 नैराश्यपूर्ण एवं नकारात्मक सोच के प्रति उपेक्षा का भाव अपनाकर, प्रकृति में व्याप्त उस दिव्य शक्ति में विश्वास कर क्यों न सकारात्मक सोच को आज और अभी से अपनाया जाए!

शनिवार, 6 अगस्त 2011

नैतिक रूपांतरण की जरुरत है ....

आये दिन अख़बार की सुर्ख़ियों में आजकल जिस प्रकार की भ्रष्टाचार की खबरे छप रही है, उसे देखकर लगता है कि देश में भ्रष्टाचार की आँधी सी आयी हुई है! जिस भारत को लोग कभी पुण्यभूमि कहते नहीं थकते थे आज उसी पुण्यभूमि पर प्राय: हर मनुष्य का स्वार्थ साधन ही एक प्रमुख लक्ष्य बन गया है! बड़े-बड़े उद्योगपति, व्यापारी, न्यायाधीश, आफिसर्स, अध्यात्मिक धर्म के ठेकेदार, शिक्षण संस्थाये शायद एक संस्था एक मनुष्य ढूँढना मुश्किल है जो भ्रष्टाचार में लिप्त न हो! देश के रक्षक ही जब भक्षक बन गए हो तो जनता का हित देश का उद्धार कैसे संभव है?  वोट की खातिर बड़े-बड़े वायदे नीतिपरक बाते करनेवाले सत्ता हाथ में आते ही उच्च कोटि के भ्रष्टाचारी साबित होते है! अक्सर हम लोगों को कहते हुये सुनते है क़ि, सत्ता और शक्ति अच्छे-अच्छों को भ्रष्ट बना देती है ! मुझे तो बिलकुल असंगत तर्क लगता है यह ! शक्ति और सत्ता तो केवल बहाना है ! मनुष्य के व्यक्तित्व में ही कही गहरे में छुपी होगी भ्रष्ट मानसिकता तभी तो, सत्ता उस भ्रष्टाचार को और भी उजागर कर देती है ! सत्ता क़ी आड़ में छुपा लोभ और लालच का परिणाम आज भ्रष्टाचार के रूप में सारे मुल्क को भोगना पड रहा है !
 ओशो साहित्य में बहुत सुंदर बोध कहानी है यह! जो क़ी मुझे पढने को मिली ! महान सिकंदर जब भारत आया था तो उसने एक फकीर के हाथ में एक चमकती हुई चीज देखकर पूछा क़ि,यह क्या है ? वह फकीर बोला मै बता नहीं सकुंगा! यह राज बताने का नहीं है! लेकिन सिकंदर जिद पर अड़ गया ! कहा मैंने जीवन में कभी हार नहीं मानी है ! आपको बताना ही पड़ेगा! तब फकीर ने कहा, एक बात बता सकता हूँ क़ि, तुम्हारी सारी धन-दौलत इस छोटी सी चीज के सामने कम वजन क़ी है ! सिकंदर ने ततक्षण एक बहुत बड़ा तराज़ू मंगवाया और लुट का जो माल था हीरे-जवाहरात,सोना-चांदी सब उस तराज़ू के एक पलड़े पर रख दिया ! और उस फकीर ने उस चमकदार छोटी सी चीज को दुसरे पलड़े पर रख दिया ! उसके रखते ही फकीर का पलड़ा नीचे बैठ गया और सिकंदर का पलड़ा ऊपर उठ गया ! ऐसे क़ी जैसे वह ख़ाली हो, सिकंदर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया ! फकीर के चरणोंमे झूक गया ! और कहा कुछ भी हो, मुझे इसका राज बतलाओ ! फकीर ने कहा राज़ कहना मुश्किल है कहा नहीं जा सकता, इसलिए नहीं कह रहा हूँ! लेकिन तुम झुके हो, इसलिए एक बात और बताये देता हूँ! एक चुटकी धूल उठाई रास्ते से और उस चमकदार चीज पर डाल दी ! और न मालूम क्या हुआ क़ी फकीर का पलड़ा हलका हो गया और ऊपर क़ी तरफ उठने लगा और सिकंदर का पलड़ा भारी हो गया और नीचे बैठ गया! सिकंदर और भी चकित हो गया ! उसने कहा यह मामला क्या है ! पहेलियों को और मत उलझाओ! सीधी-सीधी बात है कहना हो कहो न कहना हो मत कहो ! उस फकीर ने कहा जिज्ञासा से पूछ रहे हो इसलिए बताये देता हूँ! यह कोई खास चीज नहीं है, मनुष्य क़ी आँख है ! इसपर धूल पड जाए तो दो कौड़ी क़ी,धूल हट जाए तो इससे बहुमूल्य और कुछ भी नहीं है ! सारी पृथ्वी का राज्य सारी धन-दौलत फीकी है !
        इस बोध कहानी से यही लगता है आँख पर जो लोभ और लालच क़ी धूल पड़ी है उसे हटाने के लिये नेताओं का नैतिक होना बहुत जरुरी है ! तभी देश क़ी जनता का कल्याण होगा और देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी !

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

दिन और रात के संधि-पल .........

       रात और दिन है दोनों गहरे प्रेमी
        किन्तु स्वभाव दोनों का अलग-अलग
        रात है सौन्दर्य प्रिय, आराम पसंद तो,
        दिन है कर्मठ, व्यावहारिक !
        अक्सर दोनों में इसी बात पर
        हो जाती है तू-तू मै-मै !
        रात हर वक्त सजती संवरती है तो,
        दिन हमेशा भागता दौड़ता है !
        कभी लेटे-लेटे रात, नदी के बहते पांनी में
        अपनी परछाई को निहारती है तो
        कभी बादलों की लटों को अपने
        मुखड़े पर बिखरा लेती है !
        कभी चंदा-सी खिलखिलाती है तो
        कभी सिकुड़कर आधी रह जाती है !
        जब भी रात और दिन आमने- सामने
        पड़ते तो दोनों में फिर से शुरू तू-तू मै-मै !
        रात कहती है कामसे जादा आराम जरुरी है
        दिन कहता है आराम से जादा काम जरुरी है !
        जब एक दिन दोनों में बहस असह्य हो गई तो,
        न्याय मांगने गए अपने रचयिता के पास !
        रचयिता ने दोनों को समझाते हुये कहा ....
        तुम दोनों महत्वपूर्ण हो मेरे लिये
        इसी लिये मैंने तुम दोनों की रचना की है!
        गुण-अवगुण तो एक ही पहलु के
        दो दृष्टिकोण है! फिर भी दोनों समझे नहीं!
        तब हारकर उन्होंने थोड़े समय के लिये
        रात को दे दी उजाले वाली चादर और
        दिन को दे दी अँधेरी वाली चादर ताकि,
        दोनों रात और दिन बनकर अपना-अपना
        महत्त्व समझ सके! हुआ भी यही
        अपनी-अपनी चादर बदलकर ही
        दोनों को पता चला की, वे दोनों कितने
        एकदूसरे के लिये महत्वपूर्ण है !
        तबसे आजतक दोनों में फिर कभी
        झगड़ा नहीं हुआ! नाही दोनों एकदूसरे को
        निचा दिखाकर अपमान करते है कभी !
        अब दिन रोज सुबह ख़ुशी-ख़ुशी दुनिया को
        कर्मठता का पाठ पढ़ाता है! और रात
        चंदा की चांदनी लेकर घर-घर जाकर
        थकी-हारी दुनिया को सुख और शांति की
        नींद सुलाती है! आज भी दोनों अपनी-अपनी
        चादर बदल लेते है ............................
        इसीलिए हम सब को उन दोनों के
        संधि- पलों की खातिर सुबह और शाम
        कितने सुहाने लगते है !
        सच में, अच्छा बुरा तो कुछ नहीं होता
        प्यार और नफरत तो बस हमारी निजी
        जरूरतों का ही तो नाम है !
        है ना?

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

व्यक्ति के विचार ही उसकी पहचान है !

आजकल आधुनिक प्रेमियों में ब्रेक-अप शब्द बड़ा प्रचलित हो रहा है! जरासी विचारों में  कुछ अनबन हुई नहीं कि, ब्रेक-अप हो जाता है!
 

संयोगवश कभी-कभी समान विचार एकदूसरे के प्रति आकर्षित हो जाते है! विचार मित्रता में, मित्रता प्रेम में बदलते देर नहीं लगती! प्रेम है की एकदूसरे से परिचय चाहता है! घुल-मिल जाना चाहता है एकदूसरे में, एक अटूट रिश्ते में बंधना चाहता है! जैसे-जैसे परिचय गहरा होता जाता है प्रेम अपना स्वाभाविक आकर्षण खोने लगता है! रिश्ते एकदूसरे पर हावी होने लगते है बोझ जैसे प्रतित होने लगते है तब तंग आकर दोनों ब्रेक अप कर लेते है! किन्तु प्रेम की भी अपनी गहराई है अपने कानून कायदे है! पर किसके पास इतना समय है इसे समझने के लिये! आज युवावों को सब कुछ इन्स्टंट चाहिए! शायद खलील जिब्रान ठीक ही कहते है! प्रेम का मार्ग बड़ा कठिन है! इस मार्ग पर चलने वाले सच्चे प्रेमी मुस्कुरा तो सकते है पर खुलकर हँस नहीं सकते! रो तो सकते है पर अपने आंसूओंको  सुखा नहीं सकते! सच्चे प्रेमियों का स्वभाव मित्रत्व का होता है! वे मंदिर के दो स्तभों की भांति रहते है! अधिक पास न अधिक दूर! दोनों अवस्था में मंदिर का निर्माण संभव ही नहीं! वे एकदूसरे पर अपना अधिकार नहीं जमाते नाही एकदूसरे को अपना गुलाम बनाते है! उनके लिये प्रेम अपने आप में पर्याप्त है! प्रेमियों के बीच हो, चाहे पति-पत्नी के संबधों में स्पेस चाहिए! अपनी-अपनी निजता का स्पेस, स्वतंत्र विचारोंसे ही रिश्ते फलते-फूलते है वर्ना संबंध एकदूसरे पर हावी होने लगते है!

         यदि हम किसी के विचारों से कभी प्रभावित हुये है तो, उन विचारों के प्रति उस व्यक्ति के प्रति सम्मान का भाव कभी कम न होने देना चाहिए! क्योंकि उस व्यक्ति के विचार ही उसकी पहचान है!

बुधवार, 6 जुलाई 2011

चली आओ तुम मेरी कविता ........

आज फिर तुम लिये
उन सारी मीठी
यादों की मधुर
स्मृति मतवाली
घोल-घोल कर
मलय पवन में,
रजनीगंधा-सी
मन को महकाने
चली आओ तुम
मेरी कविता !
कैसी छायी है
निराशा मनपर
छायी है उदासी
डरा रही मुझको
मेरी ही तनहाई
प्रिय सखी-सी
मुझको बहलाने
दबे-पाँव चली
आओ तुम
मेरी कविता !
जीवन की
रिक्त पाटी पर
इन्द्रधनुषी रंग भरने
जब-तब मेरे घर
चली आओं
तुम मेरी कविता !

सोमवार, 20 जून 2011

सर्द हवाएँ कुछ यूँ कहने लगी है ठंडे-ठंडे स्पर्श से ...........

मानसून के आते ही, सर्द हवाएँ बहने लगी है ! नभ में आषाढ़ के मेघ घिरने लगे है ! पुरवाई के हर झोंके में एक अपरमित उल्हास भरा हुआ है ! नभ से लेकर धरती तक जन-जीवन बारिश के नैसर्गिक आनंद में डुबने लगा है ! मौसम कुछ-कुछ गुलाबी होने लगा है !
                 सर्द हवाएँ  कुछ यूँ
                 कहने लगी है
                ठंडे-ठंडे स्पर्श से
                तन-मन भिगोने लगी है !
  बारिश में बच्चों को भीगना, कागज की नाव बनाकर आसपास के जमे हुए पानी में उनको तैराना बहुत अच्छा लगता है ! आंगन में रिमझिम बरखा बरस रही हो,आपने घर के सब खिड़की, दरवाजे बंद कर दिए हो, ताकि बच्चों के स्कूल
के होमवर्क में कोई व्यवधान न पड़े ! किन्तु आंगन में ,
जोरजोरसे बरसती बरखा का शोर बच्चों को बाहर आने के लिए निमंत्रण ही दे
रही है ! ऐसे में स्कूल का होमवर्क कैसे होगा भला ? आखिर कर
लाडली बिटिया ने अपनी मम्मी से कह ही दिया ........

                 ममा छोड़ो होमवर्क कल कर लुंगी
                 ऐसी रिमझिम जाने फिर कब होगी
                 छम-छम पानी में खेलूंगी
                 मुखड़े पर मोती झेलूंगी
                 भोली-सी नादानी करने दो
                 मम्मी बारिश में जाने दो !
वैसे भी आजकल के बच्चे हमेशा टी.वी., कंप्यूटर से चिपके रहते है ! आज कुछ बारिश में भीगने का मजा लुटने दीजिये उनको! आसमान में उमड़ते घटाओं को देखकर किसी के भी मन में हिलोर उठना स्वाभाविक है ! छमा-छम बारिश हो,चारोओर खुशगवार नज़ारे हो, ऐसे में हर चीज शराबी सी लगने लगती है !किसी कवि ह्रदय पति का मन भी रूमानी हो गया है ! अपने पत्नी के साथ छतपर बारिश में भीगने का आनंद लेना चाहता है,वह है की घर-गृहस्थी  के कामो में उलझी है !
                 छोड़ो भी काम गृहस्थी के
                 जैसे भी हो आओ छत पर
                 देखो तो क्या यौवन उमडा
                 मेघो वाली अल्हड रुतु पर
                 जामुनी घटा घिर आई है
                 पछुआ ने लट बिखराई है
                 बूंदे तिर आयी नयनों में इन बूंदों की अगवानी मे
                 हम दोनों साथ भीगे बरखा के पहले पानी में !
ऐसे कविहृदय पति बहुत कम होते है ! इसबार उनकी ओर से ऐसा कोई निवेदन आये तो झट से मान लीजिये ! दूर देश में रहने वाला प्रियतम अपनी प्रेयसी के मन में अपने यादोंकी बहुत सारी सौंधी-सौंधी महक छोड़ गया है ! जो बारिश के इस मौसम में उसकी याद बनकर उमड़ रहे है ! अपने घर की बालकनी में प्रिय के विरह में उदास सी खड़ी बारिश से मन बहलाने की कोशिश कर रही है ! रिमझिम बरसती बूंदों ने, काली -काली घटाओं ने, मदमस्त बहती हवाओं ने उसके मन को बहलाने की खूब कोशीश की पर सब व्यर्थ.......
                 प्यार से भीगा गगन है
                 दर्द से भीगा हुआ ये मन है
                  बरसे बरखा रिमझिम-रिमझिम
                  आज नयन भी खूब बरसे
                  रिमझिम-रिमझिम!
बारिश के इस सुहाने मौसम में कविताओं से भीगी हुई यह रचना, किसी के यादों की बारिश बन कर आप सब के अंतर तक को भिगोये बस यही कामना है! 

          (छोड़ो भी काम गृहस्थी के..... ओशो साहित्य से साभार)

मंगलवार, 14 जून 2011

संसार में निर्वाण खोजना क्या इतना आसान है ?

बुद्ध जब सुबह हमेशा की तरह भिक्षा मांगने एक घर के सामने रुक गए ! तब पता नहीं उस घर की गृहिणी किस क्रोध में घर को बुहार रही थी, जब बुद्ध को घर के सामने भिक्षा मांगते देखा तो क्रोध के आवेश में सारा घर का कचरा बुद्ध पर फ़ेंक दिया ! इस अप्रत्याशित घटना से कुछ पल के लिए बुद्ध भी हतप्रभ रह गए ! उनकी समझ में नही आया की, क्या हुआ है ! जब सारा शरीर बदबूदार हो गया तो, बुद्ध जैसे  करुणावान मनुष्य का मन भी पलभर को आहत हुआ  होगा वेदना से, उस दिन उन्होंने फिर कोई भिक्षा नहीं मांगी ! और अपने स्थान पर जाकर वे ध्यानमग्न होकर बैठ गए ! जैसे कुछ हुआ ही नहीं ! कहानी यही तक कहती है पर मुझे पता है आगे क्या हुआ होगा ! अब क्या भिक्षा मांगना, उस दिन उस घटनासे उनकी सारी भूख ही,मर गई होगी और क्या ? हमारे आस-पास भी बहुत सारे ऐसेही लोग अपने-अपने घृणा का कचरा लिए बैठे है ! जरासा आपने अपने मन का द्वार खोला नहीं की, फ़ेंक देते है उस कचरे को, सारी घृणा उंडेल देते है आप पर ! कितना भी सहनशील,संवेदनशील मन क्यों न हो आखिर बिखर ही जाता है ! दुखी होता है ! जीवन का सारा उत्साह जैसे समाप्त होने लगता है !
   साँझ जब बुद्ध अपने भिक्षुओंको अपने अमृतमय प्रवचन सुना रहे थे तब,वह गृहिणी  वहां आकर, बुद्ध के चरणों में सर रख कर रोते हुए माफ़ी मांगती है ! सुबह की हुई भूल पर बहुत पछतावा भी करती है तो , पता है तब महात्मा बुद्ध ने क्या कहा ?उन्होंने कहा अरी बावरी छोड़ सुबह की घटना को, मै तो कब का भूल गया ! तू भी भूल जा ! क्योंकि सुबह क्रोध करनेवाला वाला कोई और मन था  ! अब माफ़ी मांगने वाला कोई और है ! सब मन का खेल है! और महात्मा बुद्ध ने उस गृहिणी को क्षमा कर दिया ! हम ऐसा क्षमा भाव कहाँ से लाये, ऐसे मनुष्यों को क्षमा करने के लिए! बुद्ध जैसा असाधारण मन उनके जैसी करुणा कहाँ से लाये हम ?  रुग्ण  मानसिकता से भरे मनुष्योंके के बीच रहकर संसार में निर्वाण खोजना क्या इतना आसान है ?



शनिवार, 11 जून 2011

आज का यथार्थ .........

सुबह-सवेरे
मॉर्निंग वाक् के
बाद !
जब हम घर
लौटेंगे तब
गर्म चाय के
प्याले में,
दूध और शक्कर के
साथ.
क्यों न हम
उसमे घोले
दो चम्मच
प्यार की मस्ती !
और भूल जाए
उन मस्तीभरी
चुस्कियों में,
भूत-भविष्य !
शुद्ध वर्तमान में
जो भी है
जैसा भी है
स्वीकार कर ले
आज का यथार्थ !


शुक्रवार, 3 जून 2011

अहिंसा:परमो धर्म!


सुंदर विचार तभी सार्थक है
जब उसमे सत्य की झलक हो !
सत्य तभी सार्थक है जब
उसमे सौंदर्य की झलक  हो !
सत्य और सौंदर्य एक दुसरे के
पूरक है !
कभी किसीकी कविता की
चार पंक्तियाँ भी ह्रदय को छू जाती है ! 

कभी किसीके गीतों के सुंदर बोल भी अधर
गुनगुनाने को अधीर हो उठते है !
कभी-कभी तो कितने भी सुंदर,सत्य विचार क्यों न हो
हमारे समझ से परे लगते है ! 

समझ में ही नहीं आता कि रचनाकार
अपनी रचना द्वारा क्या समझाना चाहता है !
ऐसे में ......
बौखलाकर-तिलमिलाकर कुछ भी
टिका-टिप्पणी करने से पहले
एक मिनिट धैर्य से उस रचना को
बार-बार पढ़िए ! 

फिर भी बात समझ में नहीं आये तो,
सरल -सा मधु-मक्खी का गुरुमंत्र अपनाइए  

जैसे ....
एक मधु-मक्खी मधुर रस की
चाह लिए, 

फूल पर मंडराकर उसके गंध को,सौंदर्य को
बिना इजा पहुंचाए,शांति का पाठ पढाकर गूजर जाती है
ऐसे ही आप गूजर जाइये
"अहिंसा:परमो धर्म" का गुरुमंत्र अपनाइये !
नोट : इस गुरुमंत्र का उपयोग
हम अपने जीवन शैली में भी
इस्तमाल कर सकते है !
क्योंकि कौन नहीं चाहता है शांति ?
किन्तु शांति के लिए शब्दों की
तलवारे चलाना क्या ये जरुरी है ?

गुरुवार, 26 मई 2011

जीवन है एक सरगम ! (गीत)

आज क्यों दर्द भरे है
स्वर वीणा के !

चाहे हंसकर गाओ
चाहे गाओ रोकर
जीवन है एक
सरगम !

नित जीवन गीत
सुनाने वाले
सरगम के
आज क्यों दर्द भरे है
स्वर वीणा के !

प्रात कभी एक
हंसा गए
साँझ कभी एक
रुला गए
रूठे सहज-सरल
भाव मन के !

आज क्यों दर्द भरे है
स्वर वीणा के !

जब ढीले-ढाले
कुछ अधिक कसे
हुये हो तार मन के
कैसे हो स्वरसाधन ?
बिखर-बिखर गए
तार वीणा के !

आज क्यों दर्द भरे है
स्वर वीणा के !

रोज की हमारी भागदौड़, एकदुसरेसे आगे होने की प्रतियोगिता,जीवन के संघर्ष में न जाने हमारे ह्रदय  का संगीत कहीं खो गया है ! विचारोंके अराजक कोलाहल में मन वीणा के तार बिखर गए है !

शनिवार, 21 मई 2011

२२ मई १९८७

विवाह बंधन जैसे सबके जीवन में एक महत्त्वपूर्ण घटना है वैसे हि मेरे लिए भी जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना है! यह सही है कि सहिष्णुता, सहनशीलता, पारस्परिक समर्पण और संवेदनशीलता, सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है जो कि आधुनिक समाज में करीब-करीब लुप्त होते जा रहे है! विवाह बंधन किसी के लिए सुखद घटना तो किसी के लिए दुखद घटना साबित होती है! किसी कि झोली में फूल ही फूल, किसी कि झोली में कांटे ही कांटे, किन्तु जीवन को इन बातों से कोई मतलब नहीं वह तो अनवरत चलता ही रहता है! हमारे सुख-दुखों से उसे कोई लेना देना नहीं है! पर हमारा मन बड़ा गणितज्ञ है! जब भी कुछ अवकाश मिला नहीं कि बैठ जाता है सुख-दुखों का हिसाब-किताब  करने! जब पाता है कि सुख कि अपेक्षा दुःख के ही अनगिनत पल थे ज़िन्दगी में, तब मन अवसाद से भर जाता है, उदास हो जाता है! ऐसे में प्यारा बेटा आकर यह कहे कि "Love you Mamma", प्यारी बेटी आकर कहे "Love you Mommy, wish you a Happy Marriage Anniversay", तब सारे दुःख सारी परेशानिया सिकुड़कर बौने से लगने लगते है! लगता है सच में इतने प्यारे-प्यारे बच्चे न होते तो जिंदगी का इतना लम्बा सफ़र काटना कितना मुश्किल हो जाता! ऐसे मासूम बच्चों पर माता पिता सौ जनम भी कुर्बान करे कम है! यह तो प्रकृति का नियम ही है कि प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव, विचार भिन्न-भिन्न होते है! दो व्यक्ति कभी एक जैसे नहीं सोच सकते! वैसे भी कौन पति-पत्नी एक दुसरे कि अपेक्षाओं पर खरे उतरते है? एक दुसरे को समझने-समझाने में हि, लड़ने-झगड़ने में हि जिंदगी का लम्बा समय गुजर जाता है!
               मेरे लिए वैवाहिक जीवन अब तक एक बढ़िया प्रयोग और घर-गृहस्ती प्रयोगशाला से कम नहीं रहा है! यह मत पूछिए कि "नतीजे क्या निकले?", यह मैं नहीं बता पाऊँगी, मैं क्या शायद कोई भी शादी-शुदा जोड़ा बता नहीं पायेगा! शायद सफल दाम्पत्य जीवन का यही रहस्य हो! किन्तु एक बात सत्य है इन सब प्रयोगों से गुजर कर हि मनुष्य का मन परिपक्व बनता है, यह भी क्या कम अचीवमेंट है?    

रविवार, 15 मई 2011

लोग कहते है मौत से बदतर है इंतजार मेरी तमाम उम्र कटी इंतजार में !

कल एक नाटक पढ़ रही थी !  नाटक का नाम था  "वेटिंग फॉर गोडोट" इसके लेखक है सैमुअल बैकेट, बहुत प्यारा सा नाटक है ! लगता है  इस नाटक के द्वारा हमारी ही  मनोदशा का वर्णन किया हुआ है ! संक्षिप्त में कहानी कुछ इस प्रकार है ! दो आदमी बैठे बाते कर रहे है ! वे एक दुसरे से पूछते है कि क्यों भई, कैसे हो क्या हाल-चाल है ?  सब ठीक है ! उनका जवाब ! एक कहता है ऐसा लगता है, वह आज आएगा !  सोचता तो मै भी हूँ ! आना चाहिए कबसे हम राह देख रहे है ! आने का भरोसा तो है वैसे वह भरोसे का आदमी है ! इसप्रकारसे बाते भी करते है और इंतजार भी, राह भी देख रहे है ! दोपहर से साँझ हो जाती है फिर भी कोई नहीं आता ! फिर कहते है दोनों कि, हद हो गई बेईमानी कि भी, नहीं आया  कही कुछ अड़चन तो नहीं आ गई ? कही बीमार तो नहीं पड गया ? दोनों इंतजार करते-करते परेशान हो जाते है ! एक कहता है अब मुझसे तो नहीं होगा तुम्ही करते रहो इंतजार, मै तो चला ! मगर दोनों बैठे है कोई नहीं चला जाता ! वही बैठे है, वही इंतजार कर रहे है ! बड़े मजे कि बात यह है कि पाठक पढ़ते-पढ़ते परेशान होने लगता  है कि आखिर किसका इंतजार कर रहे है वे दोनों ? अगर हम हमारे विचारों के प्रति इमानदार है तो कई बार हमारे साथ भी ऐसा हुआ है !  कभी लगता है दरवाजे पर कोई आने वाला है ! अभी बेल बजेगी !  कई बार मेल चेक करते है ! कई बार कंप्यूटर खोलते,बंद करते है ! कोई खास पोस्ट पढना चाहते है फिर उब जाते है पढना बंद करते है ! टी.वि . खोलते है ! सुबह का अखबार फिर से पढ़ते है ! मन क्या चाहता है किस खोज में, किस इंतजार में लगा रहता है हमें ही समझ में नहीं आता ! पूरा नाटक पढने पर भी पता नहीं चलता कि वेटिंग फॉर गोडोट, याने कि गोडोट कि प्रतीक्षा यह है क्या बला? किसी ने सैमुअल बैकेट को पूछा कि आखिर यह गोडोट कौन है? उन्होंने कहा कि मुझे भी पता नहीं कि गोडोट कौन है ! अगर पता होता तो नाटक में ही लिख न देता !  लगता है बहुत सही कह रहे वो! जिस राह पर किसी के इंतजार में बैठा है यह मन, उस राह पर कभी कोई गुजरता नहीं,वह किसी कि भी रहगुजर नहीं है !      ( philosophy पर आधारित )

शनिवार, 7 मई 2011

"मदर्स डे" पर खास ...........


मेरी माँ 

सबको अपनी-अपनी माँ प्यारी होती है,
मुझको अपनी माँ सबसे प्यारी लगती है !
सरल सुन्दर मन की मधु, मिश्री-सी मीठी,
प्रेम और ममता की सरिता लगती है !
मेरी हर उलझन को चुटकी में सुलझाती,
घर को सजाकर कैसे सुंदर स्वर्ग बनाती.
माँ कभी पहेली कभी सहेली लगती है !
मेरी ख़ुशी में वह ख़ुशी से खिल जाती, 
दुःख में मेरे फूल सी मुरझाती,
माँ आँगन की फुलवारी लगती है !
कमजोर होता है जब मन, लड़खड़ाते है कदम,
अपने विश्वास भरे हाथों से थाम,
माँ कोई अनजानी प्रेरणा लगती है !
सुघड़ हाथों से तराश-तराशकर शिल्प बनाती,
माँ है विश्वास, माँ है प्रेरणा, माँ सर्वश्रेष्ठ,
भगवान की अनुपम भेंट लगती है !

माँ के लिए कभी लिखी यह पंक्तियाँ आज भी मुझे बहुत प्यारी लगती है ! दस साल पहले की बात है ! तब मै बहुत बीमार पड गई थी मेरे दोनों बच्चे बहुत छोटे थे ! तब माँ ने जिस प्रकार मेरे बच्चों को मेरे घर को संभाला मेरी जिस प्रकारसे सेवा की,  मुझे यह कहते हुये दिलासा देती की, तुझे कुछ नहीं होगा भगवान पर विश्वास रख, माँ की कही हुई बाते आज भी मै नहीं भुला पाई !  मुझे ठीक होने में लगभग एक वर्ष का समय लगा! मृत्यु के करीबसे गुजरने पर ही पता चला जीवन कितना सुंदर है ! और हम व्यर्थ के बातों में सारी जिन्दगी गुज़ार देते है !

आज मदर्स डे पर सभी माताओंको मेरी तरफ से हार्दिक शुभकामनायें !  
आज मदर्स डे के खास मौके पर मेरी बिटिया ने मुझे दिया हुआ गिफ्ट !

मंगलवार, 3 मई 2011

कुछ फूल, कुछ कांटे........

गर किसीको फूलोंकी चाह दिलमे है तो, कांटो को भी गलेसे लगाना पड़ेगा ! यही जीवन की सच्चाई है ! जीवन में अगर सुख है तो दुःख भी है! फूल है तो कांटे भी है ! जीवन को समग्रता में स्वीकार ही समझदारी है ! हर संवेदनशील वेक्ति यही करेगा !  या करना चाहिए ! हर घर-घर में पति-पत्नी के बीच अक्सर कलह क्लेश होते ही रहते है कभी-कभी छोटे झगडे भी उग्र रूप धारण कर लेते है ! हमेशा सौ में से निंन्यानव झगडे ग़लतफ़हमीयों के कारण होते है ! इगो के कारण होते है ! कोई यह मानने को तय्यार ही नहीं होता की, गलती किसकी है ! इतना मन अहंकारसे भर गया है इसीलिए दोनों के बीच कभी सुलह नहीं हो पाती! रोज-रोज के इन झगड़ों,क्रोध, वैमनस्य,द्वेष,घृणा में लगता है जीवन का संगीत कही खो गया है ! अक्सर लोगोंको हमने कहते सुना है की घर में दो बर्तन है तो टकरायेंगेही टकरानेसे आवाज तो होंगी ! आवाज हो, पर सिर्फ कर्णकर्कश हो यह जरुरी तो नहीं है !  आवाज मधुर,सुरीली भी हो सकती है ! बशर्ते की बजाने वाला संगीतकार ठीक -ठाक हो उसके मस्तिष्क के तार (इगो) बिलकुल खिंचे हुये न हो ताकि विवेक से काम लिया जा सके ! और ह्रदय के तार बिलकुल ढीले -ढाले न हो ताकि प्रेम पैदा हो सके ! तभी जीवन से कुछ खुशियाँ पाने की उम्मीद हम कर सकते है ! अगर मस्तिष्क और ह्रदय दोनों में संतुलन करना हमें आजाता है तो घर में कलह क्लेश की सम्भावना बहुत कम रह जाती है !