गुरुवार, 27 जून 2013

रुपये की कहानी उसी की जुबानी ...!

रूपया कल मुझे अपनी आपबीती सुनाते-सुनाते फफक पड़ा ! मुझे उसकी दयनीय हालत पर दुःख
हुआ ! उसे प्यार से समझाते हुए कहा ...."देख भाई रोना मत बुरा वक्त हर किसी के जिंदगी में आता है आज तुम्हारा बुरा वक्त चल रहा है लेकिन कल अच्छा वक्त भी आएगा यकीन रख, तू भी क्या हम स्त्रियों की भांति रोने लगा है "?  पहले मै भी स्त्री ही था तुम्हारी तरह, सोचा था अच्छा है घर बैठकर राज करुँगी पति की कमाई पर, वो नाम मात्र के मंत्री होंगे लेकिन घर की  वित्त मंत्री तो मै ही रहुंगी बाहर के काम काज से मुझे क्या पड़ी ? पुरुष का काम पुरुष ही जाने रुमाल से अपने आंसू पोछते हुए उसने कहा ! मैंने आश्चर्य से कहा लेकिन तुम तो पुरुष हो यह सब हुआ कैसे ? एक स्त्री का दुःख स्त्री से बेहतर कौन जान सकता है भला ? इसके लिए तुझे मेरी दुःख भरी कहानी सुननी पड़ेगी बहन रुपये ने कहा ....तो सुना दो भाई मैंने उतावले स्वर में कहा !

बात बहुत साल पुरानी है तब मै अपने भाइयों के साथ एक गाँव में संपन्न किसान के घर में रह रहा था ! रोज रात पडौस के गांव में डकैती की चर्चा सुन किसान बेचारा डर जाता था ! एक दिन उसने अपने घर के भीतर वाले कोठी में, जिसमे भूसा भरा हुआ था, एक गड्ढा खोद कर मिटटी के बर्तन में मुझे मेरे भाइयों के साथ बंद कर दिया, ऊपर से मिटटी भूसा डाल दिया ! वहां न प्रकाश न स्वतंत्रता, अजीब जेलखाने में बंद कर दिया था उसने, विवश भरे जीवन के पांच साल बिताने पड़े मुझे वहां !

सहसा एक दिन किसान की पत्नी किसान के पीछे पड़ गई कि उसे कौंधनी ( एक प्रकार का जेवर ) चाहिए किसान अपनी पत्नी की बात कैसे टालता उसने धरती खोदकर मुझे अपनी भाईयों के साथ बाहर निकाला ! मै बहुत प्रसन्न हुआ लेकिन कुछ ही समय के लिए, मुझे सुनार के यहाँ भेज दिया गया ! मै अपनी पहली अग्नि परीक्षा का ध्यान कर काँप गया ...पहली अग्नि परीक्षा ? मैंने बीच में ही उसे टोकते हुए पूछा ! हाँ इसके पहले भी मेरी सीता की तरह अग्नि परीक्षा हुयी थी, वह इसके पहले की कहानी है ..."ओह बड़ी दुखद कहानी है फिर क्या हुआ मैंने पूछा" ! मेरे भाईयों को सुनार ने धीरे- धीरे अग्नि की भेंट चढ़ा दी सौभाग्य से मेरा नंबर आने से पहले ही कौंधनी की नाप की संख्या पूरी हो गई इस तरह मै बच गया और भगवान को लाख लाख धन्यवाद  दिया !

उस घटना के बाद भ्रमण करता हुआ मै शहर आ गया ! देशाटन करने में मुझे विशेष आनंद आता था, कभी अयोध्या कभी उज्जैन, कभी काशी तो कभी कानपूर कहने का मतलब कि मैंने देश का कोना-कोना झाँक कर देखा ! जहाँ भी पंहुचा लोगों ने मेरा भरपूर स्वागत किया ! गरीब के झोंपड़े से लेकर राजप्रासादों तक, रानियों के सन्दुक से लेकर आज पढ़ी लिखी लेडी के पर्स में पंहुच गया ! ब्यूटी पार्लर में, किटी पार्टियों में अंधाधुंध मुझे खर्च करती महिलाओं को देखकर दुःख के साथ एक ख़ुशी भी हुई कि चलो वे आर्थिक दृष्टया सक्षम तो हुई है !

अब मै अपनी प्रशंसा कहाँ तक करूँ संसार के अच्छे बुरे कृत्य मेरे द्वारा पुरे होते है ! आज का युग तो मुझे ईश्वर की ताकत से ज्यादा ताकतवर मानता है हर घर घर में मेरी पूजा होती है ! मुर्ख को विद्वान बनाना मेरे बाए हाथ का खेल है ! रंक को राजा बनाना पापी को पुण्यात्मा बनाने की ताकत मै रखता हूँ अर्थात आज के युग में मै सर्वशक्तिमान हूँ ! वह अपनी प्रशंसा करता ही जा रहा था ...इतने में मैंने उसे टोकते हुए कहा "लेकिन तुम मूल रूप से रहने वाले कहाँ के हो" ? उसने अपनी आँखे बंद की फिर अपने अतीत में खो गया !

मेरा जन्म उत्तरी अमेरिका के मैक्सिको प्रदेश में आज से युगों पूर्व हुआ था ! पृथ्वी को खोदकर मुझे बाहर निकाला गया ! जबरदस्ती निर्दयतापूर्वक मुझे मजदूरों ने मेरी माँ की ममतामई गोद से छिनकर बाहर निकाला ! इस बात का दुख तो बहुत हुआ पर कुछ संतोष भी हुआ कि प्रकाश जैसी कोई चीज भी इस संसार में है इसका मुझे पता नहीं था ! धरती के भीतर अंधकार में ही मेरी दुनिया थी और यही मेरा स्वर्ग था, जैसा भी हो पर अपना घर अपना ही होता है ! मजदूरों ने बड़ी निर्ममता से मुझे बाहर निकाल कर जलती अग्नि की भयानक लपटों में मुझे डाल दिया ! मेरा सारा शरीर पिघल गया, घोर कष्ट उठाना पड़ा था तब, परिणामस्वरूप मेरे भाई जो मेरे साथ आये थे दूर हो गए ! मेरा शरीर पिघलकर पानी जैसा हो गया था, बाहर आकर हवा की ठण्ड पाकर मै जम गया तो पहले की अपेक्षा अधिक सुन्दर बन गया था, जैसे चन्द्र रश्मियों के समान मेरी चमक थी और धवल दूध के समान धवल हो गया था इसलिए मुझे लोगों ने चांदी नाम रख दिया था ! 

मुझे बचपन में ही जहाज से दूर यात्रा करने का सुअवसर मिल गया ! मै एक देश से दुसरे देश यात्रा करते हुए भारत भेज दिया गया ! भारत में मुझे विशेष स्नेह से अपने गोदियों में भरकर जहाज से उतारा गया, जैसे किसी नई बहु का स्वागत होता है घर में, वैसे ही मेरा स्वागत हुआ ! यहाँ की सरकार ने फिर मुझे कलकत्ते की टकसाल में भेज दिया ! वहां फिर एक बार मेरी अग्निपरीक्षा हुई भट्टी में जलाया गया बड़े-बड़े कारीगरों ने मिलकर मेरे छोटे-छोटे टुकडे बना दिए ! दुःख तो बहुत हुआ पर क्या करता सब कुछ सहना पड़ा ! मेरी देह चंद्रमा की तरह गोल बना दी गई ! मेरा दुल्हन की तरह श्रुंगार किया गया ...मेरे एक और तत्कालीन सम्राट जार्ज पंचम का स्वरूप बनाया गया दूसरी और मेरा नाम लिखा गया और जन्म तिथि भी लिखी गई जिससे मेरी आयु का पता चले ! टकसाल के पंडितों ने मेरा नामकरण किया और तबसे लोग मुझे रूपया कहकर बुलाने लगे, यहाँ से शुरू हुई थी  मेरी जीवन यात्रा, आगे की सारी कहानी तो तुम जानती ही ही, अब तो तुम समझ ही गई होगी मै स्त्री से पुरुष कैसे बना  ? रुपये ने एक लंबी सांस लेते हुए अपनी आपबीती सुनाई !

हाँ भाई जानती हूँ, बड़ी दुखद कहानी है तुम्हारी लेकिन मुझे तुमसे सहानुभूति है मैंने ऐसे ही तुझे भाई नहीं कहा है ! मै जानती हूँ हर बुरे वक्त में तू ही सगे भाई की तरह मेरे काम आया है ! मेरे ही क्यों दुनिया में लोगों की निन्न्यानव प्रतिशत समस्याएं तू ही दूर कर देता है ...तू परहित के लिए अपनी जीवन की बाजी लगा देता है ! तुम्हारा जीवन सच में त्यागमय है ! दूसरों को सुख देकर तू सुखी होता है ! लेकिन कुछ लोग अपने स्वार्थवश तुझे दबाकर रख लेते है यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती लेकिन तुम फ़िक्र मत करना सुख दुःख धुप छाँव की तरह होते है आते है चले जाते है !कभी गिरना कभी उठना, शायद इसी का नाम जिंदगी है लेकिन हर हाल में तुम लोगों की जुबान पर रहोगे भाई !



सोमवार, 24 जून 2013

क्षणिकाएँ ....

हवा ,पानी ,प्रकाश 
काफी तो नहीं 
आत्मविश्वास के 
पंख दो उसे उड़ने को 
सुदूर आकाश ....!
    ***
सपने  उसके 
अपनी आँखों  से नहीं 
उसकी आँखों से देखे 
साकार करेगी 
हम सबके .....!
   ***
बोल तो 
दे दिए है हमने 
गीत उसीका 
गुनगुनाने दे उसीको 
प्रेम गीत कोई  ....!
    ***
इसके पहले कि ,
आदर्शों का मजबूत बांध 
झटके में तोड़ दे 
सहज बहने दे 
नदी की धार  को  ....!

गुरुवार, 13 जून 2013

पानी बरसा तन-मन हरषा ....


कुछ दिनों से शहर में आषाढ़ी मेघ छाने लगे है ! सर्द हवाएं बहने लगी है ! मौसम गुलाबी होने लगा है ! पुरवाई के हर झोंके में अपरमित उल्लास भर गया है ! लेकिन मानसून की पहली बरसात कल हुई ,वह भी जोरदार !

साँझ तक घुमड़-घुमड़ कर जोरों की बरसात होती रही ! कुछ बच्चे घर में बैठकर होम वर्क करने की बजाय ,टी .वी .,कंप्यूटर के सामने बैठने की बजाय बारिश का  मजा लेने आँगन में आ गए ! इधर उधर जमा हुए पानी में कागज की नाव बनाकर तैराते उन बच्चों को देखकर मुझे भी अपना बचपन याद आ गया और अनायास याद आ गई कविता की यह पंक्तियाँ ....
                                       डगमग डोले डगमग डोले 
                                      पानी ऊपर नाव रे 
                                      कागज की ये नाव रे 
                                     पानी बरसा तन-मन हरषा 
                                     खुशियों का  इन्द्रधनुष खिला 
                                      तट के उस पार लिए चली 
                                     सुन्दर सपनों का संसार रे 
                                     कागज की ये नाव रे ...........!

नभ से लेकर धरती तक जन-जीवन बारिश के इस नैसर्गिक आनंद में डूब गया है ! ऐसे  में बारिश को देखकर किसी के भी मन में हिलोर उठनी स्वाभाविक है ! अचानक आई झमाझम बारिश ने शहर की सड़के तलैया जैसी बन गई  है ! फिर भी  अपने बाइक पर गुजर रहा एक प्यारा सा जोड़ा गा उठा .....

                                      हम तुम कितने दीवाने निकले 
                                     भरी बरसात में भीगने निकले !

 कितना सच है न , बारिश  छोटे-बड़े सबको दीवाना बना  ही देती है ! चारोओर खुशगवार नज़ारे सब कुछ शराबी सा लगने लगता है ! लेकिन कुछ लोग अचानक हुई इस बारिश से परेशान हो गए ! क्योंकि बरसाती नाले उफन उफन कर उनके घरों में घुस गए थे , बारिश को कोसते , बुरा भला कहते इन लोगों को देखकर अनायास हमारे प्रसिद्ध रचनाकार की यह पंक्तिया होठों पर आ गई ....

                      लोगों का क्या,चलते फिरते ,सूरज पर थूका करते है 
                      रोशनी भूल कर गर्मी पर,कोहराम मचाया करते है !

देखा कल तक जो गरमी -गरमी कहकर कोहराम  मचा रहे वही लोग आज बारिश पर कोहराम मचा रहे थे ! सच है  कुछ लोग हर हाल में कोहराम मचाते देखे जा सकते है !मेरी जैसी कुछ गृहिणियां बारिश को देखकर इसलिए खुश हो रही थी कि ,चलो टमाटर, भिंडी कुछ तो सस्ते होंगे ! महंगाई की वजह से पिछले कुछ दिनों सब्जियों के दाम आसमान छू रहे थे !कोई भी सब्जी ६० रुपये किलो से कम नहीं थी !खैर  जो भो हो कुछ कम ज्यादा सभी ने इस मौसम की पहली बारिश का मजा लिया !

जाते-जाते ....यह तो हुई बाहर की बारिश जो हर साल अपने नियमित समय पर आती है जाती है ! एक और भी बारिश  होती है ,सद्गुरु की कृपावृष्टि की बारिश जिसपर भी बरसती है तन-मन आत्मा तक को भिगो देती है !और जीवन को हरा भरा कर देती है ....इस बारिश को संत कबीर कुछ इस प्रकार कहते है ....

                           कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई 
                         अंतर भीगी आत्मा, हरी भई बनराई ....!!




                                                  

मंगलवार, 11 जून 2013

महत्वाकांक्षाओं की शरशैया पर .....

सुबह घर से
निकलो तो 
साँझ होते-होते 
किसी गांव 
किसी बस्ती तक 
पहुंचा ही देती है 
घुमावदार पगडंडी !
इसकी अपेक्षा 
राजपथ अपने 
मुकाम तक 
पहुंचाता कम 
भरमाता,भटकाता 
अधिक है इसलिए 
हे पितामह ...
अपनी जिम्मेदारियों का 
बोझ निश्चिंत 
नए कंधों पर 
उतार कर 
थके क़दमों को 
अब तो 
विराम दे दो  
घायल तन 
घायल 
आत्मा लिए 
कब तक 
पड़े रहोगे इस 
महत्वाकांक्षाओं की 
शरशैया  पर .....?


गुरुवार, 6 जून 2013

सागर तुम्हारा अंतिम लक्ष्य .....


मन,
असहज से 
कहाँ भागे 
जा रहे हो ?
जीवन की 
बिछी हुयी 
पटरियों पर 
रेलगाड़ी की 
भांति 
दौड़ो नहीं 
बहो सरिता 
की भांति 
गुनगुनाते 
गीत गाते 
सहज सरल 
जब की 
सागर तुम्हारा 
अंतिम लक्ष्य .....!

मंगलवार, 4 जून 2013

टिप्पणियों का मनोविज्ञान ...

मित्रो, स्पेन के महान चित्रकार "पाब्लो पिकासो" के बारे में आप सब जानते ही होंगे ! अनावश्यक विस्तार में न जाते हुए उनके बारे एक बात कहना चाहती हूँ  ...एक दिन पिकासो चित्र बना रहे थे इतने में एक ग्राहक आया उनकी एक पेंटिंग वह ग्राहक खरीदना चाहता था ! मोलभाव तय कर जब वह ग्राहक पेंटिंग खरीदकर ले जाने लगा तब पिकासो ने उत्सुकतावश उस ग्राहक से पूछा कि, क्या आपको मेरी  पेंटिंग इतनी पसंद आयी जिसे आप खरीदना चाहते  थे ? इस पेंटिंग के रेखा चित्र से आपने क्या समझा ? पता है उस ग्राहक ने क्या जवाब दिया ...नहीं मै पेंटिंग के बारे में उसके रंगों के बारे कुछ भी नहीं जानता दरअसल मैंने हाल ही में बहुत बड़ा बंगलो ख़रीदा है और उस बंगले के ड्राइंग रूम में इस पेंटिंग को सजाना चाहता हूँ ! इस वक्तव्य से पिकासो क्या किसी भी कलाकार को सात्विक संताप होना स्वाभाविक है ! पिकासो ने उस पेंटिंग को उस ग्राहक के हाथ से छीन कर पैसे वापिस कर दिए और कहा जिसे कला की जानकारी नहीं जिसके प्रति प्रेम नहीं उसे कोई अधिकार नहीं इस पेंटिंग को खरीदने का ! 

आज सतीश जी की पोस्ट पढ़कर मुझे कुछ ऐसा ही लगा ! मनुष्य वही पढता है जो पढना चाहता है, वही देखता है जो देखना चाहता है, वही सुनता है जो सुनना चाहता है ! वही समझता है जो समझना चाहता है जिस भावदशा में कोई लेखक अपनी रचना को पाठकों के सामने लाता है जरुरी नहीं उस भावदशा को हर कोई  पाठक समझे ! पाठक अपने स्वभाव और रूचि के अनुसार टीका टिप्पणी करते है या फिर अपने ही स्वभाव को व्यक्त करते है पाठक स्वतंत्र है टिप्पणी करने के लिए !

ब्लॉग जगत में लेखन से ज्यादा टिप्पणियों पर क्यों इतना ध्यान दिया जाता है मै समझ नहीं पायी आज तक ! यह सच है की हर रचनाकार की दिली ख्वाइश होती है कि पाठक ध्यान से उस रचना को पढ़े प्रतिक्रिया करे पर ऐसा नहीं हुआ तो दुखी होने की क्या जरुरत है ?

मुझे तो बस यही लगता है टिप्पणियों के मनोविज्ञान को समझ कर उसके मोहजाल से खुद को अलग कर  बिलकुल निरपेक्ष लेखन हो, हमारी रचना को सौ प्रशंसकों में से एक ने भी करीब से समझा है  सार्थक प्रतिक्रिया दी यही बहुत है मेरे लिए ...अब पता नहीं इस रचना को कोई कितना समझेंगे प्रतिक्रिया करंगे  :)

सतीश जी की आज की पोस्ट पर शायद टिप्पणी के रूप में मै इतना सब कुछ कह नहीं पाती इसलिए इसे उनकी पोस्ट पर प्रतिक्रिया ही समझे और इससे बेहतर आप प्रतिक्रिया देना चाहते है तो स्नेहपूर्वक स्वागत है !