बुधवार, 17 दिसंबर 2014

खरपतवारों ने मिलकर .....

गुलाब के
पौधों का
पोषक तत्व
ग्रहण कर
खुद ब खुद
उग आये
खरपतवारों ने
मिलकर,
फल-फूल खिलने
से पहले ही
नष्ट करना
शुरू कर दिया है
उन नाजुक
पौधों को !

सोच रही हूँ   …
अब तो तू भी
चिंतित हो रहा
होगा
अपनी इस
बगिया की
दिन ब दिन
उजड़ती हालात
पर,
आंसू बहा रहा
होगा मेरी तरह
या फिर
सोच रहा है
खरपतवार नाशक
कोई  दवा के
 बारे में … ??

10 टिप्‍पणियां:

  1. ये सोच रखनी होगी ... मानवता तभी बाख पाएगी ...
    अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति ....

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  2. यह भी कितना अजीब है कि एक नस्ल होती है "परजीवियों" की... एक प्रजाति जो शायद आदि काल से चली आ रही है... जहाँ जीवन है वहाँ इन परजीवियों का भी अस्तित्व है, भले ही उन जीवन पर आधारित... उनके हिस्से का भोजन हड़प कर या बाँटकर. पता नहीं इसे सहअस्तित्व मानें या न मानें... लेकिन यह तो हमने मान लिया है कि गुलाब को वह खर पतवार नापसन्द होगी.. जबकि मेरी समझ से यह तो हम इंसानों के दिमाग़ की उपज है कि हम अपने स्वार्थ (गुलाब का शोषण) और अहंकार के कारण (प्रकृति प्रदत्त एवम गुलाब पर आश्रित) उन खर पतवारों को शोषक, परजीवि और बुरा मानकर उनके नाश का उपाय खोजते हैं.
    लेकिन समाज में ऐसी कई खर पतवार उग आती हैं जिनकी सफ़ाई ज़रूरी है, ताकि समाज स्वस्थ बन सके!!
    एक बार फिर एक सोच को जन्म देती हुई रचना! सरल शब्दों में अपना सन्देश व्यक्त करती हुई!

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    2. यह सच है भाई, दोनों एक ही मिट्टी से जन्म लेते है लेकिन गैर महत्वपूर्ण जब महत्वपूर्ण के पनपने की सारी संभावनाओ को नष्ट करने लगे तो तब उस गैर महत्वपूर्ण को ख़त्म करना ही सार्थक होता है ! बहुत बहुत आभार इस सुन्दर टिप्पणी के लिए !

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  3. खरपतवार परजीवी तो नही होती, हाँ मुकाबले में वह ज्यादा तेज निकलती है गुलाब से। अलग सी रचना।

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  4. गुलाब की बगिया को खरपतवारों से बचाने का जिम्मा तो रसायनों ने कब से उठा रखा है :) लेकिन आप जिस 'गुलाब' और जिन 'खरपतवारों' की बात कर रही हैं उसका उत्तर तो हमारे 'imperfection' में है. सभ्यता के विकास विकास से धर्मो के अभ्युदय और तदुपरांत अब के मानव जीवन में कोई ऐसा काल खंड नहीं मिलता जिसमे बस शान्ति का साम्राज्य फैला हुआ हो. तुलनात्मक तौर पर तो यही कहा जा सकता है कि पहले के साम्राज्यवादी अभियानों के तहत जितनी हिंसा होती थी उसके अनुपात में बहुत कम है. लेकिन कोई सदी बिना हिंसा के नहीं गुजरी. अभी कुछ दशक पूर्व ही तो ३-४ दिनों के अंतराल में लाख से ऊपर की संख्या में लोग भाप बन के उड़ गए थे. मनुष्य की इस प्रवृत्ति का अंत हो नहीं सकता . हम आग्रह, मनुहार और प्रार्थनायें करते रहे हैं और करते रहेंगे.

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  5. सबै भूमि गोपाल की ... काश सब मिलजुलकर रह सकें

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