एक सूफी संत थे, जो खेती करके अपने समय का सदुपयोग करते थे ! उनकी खास बात यह थी कि वह बहुत अच्छे किस्म की मक्के की फसल उगाते थे, जिसे अकसर पुरस्कार भी मिलते थे ! हर वर्ष वह अपनी मक्का को राज्य के कृषि मेले में भेजते, जहाँ उनको सम्मान भी मिलता और इनाम भी मिलते !
एक वर्ष एक अखबारी रिपोर्टर ने उनसे यह जानने के लिए इंटरव्यू लिया कि वह इतने अच्छी किस्म का मक्का कैसे उगाते है ? रिपोर्टर को दिलचस्प जानकारी यह मिली कि सूफी संत अपने मक्के के बीजों को अपने पड़ोस में बाँटते थे ! रिपोर्टर ने पूछा आप अपने सबसे अच्छे बीज पड़ोसियों के साथ कैसे बाँट लेते है, जबकि वे भी आपकी ही तरह प्रति वर्ष प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेते है ?
सूफी ने जवाब दिया, "क्यों न बाँटू ?" क्या आपको मालूम नहीं कि हवा पकी हुयी मक्के के बीजों को उडाकर एक खेत से दूसरे खेत तक पहुंचा देती है अगर मेरे पडोसी निम्म स्तर के बीजों का प्रयोग करेंगे, तो क्रासपॉलिनेशन (पराग संक्रमण) से मेरी मक्का की गुणवत्ता पर भी कुप्रभाव पड़ेगा ! अगर मुझे अच्छी मक्का उगानी है, तो जरुरी है कि मै अपने पड़ोसियों को भी अच्छी मक्का उगाने में मदद करूँ !"
उनकी मक्का बेहतर नहीं हो सकती, जब तक उनके पड़ोसियों की मक्का बेहतर न हो जाती !
सूफी संत की दी हुयी यह मिसाल हमारे सकारात्मक लेखन के साथ-साथ क्या जीवन के अनेक पहलुओं पर भी लागु नहीं होती ??