भूख, भोजन और आध्यात्म इन तीनों का बड़ा गहरा परस्पर सम्बंध लगता है ! अभी कुछ दिन पूर्व एक आध्यात्मिक शिविर में जाना हुआ ! शहर के कई जाने माने लोग आये हुये थे ! स्वामीजी का प्रवचन सुनने को ! शिविर के कुछ दुरी पर चाय कॉफ़ी के अलावा बहुत सारी खाने की चीज़े रखी हुई थी स्टॉलों पर ! कुछ वालंटियर संस्थाओं ने इनका आयोजन किया हुआ था ! जैसे ही दो घंटे का स्वामी जी का प्रवचन समाप्त हुआ लोग टूट पड़े थे खाने पीने की इन चीज़ों पर, जैसे की बरसों से भूखे हो ! पलक झपकते ही सब कुछ ख़तम हो गया ! "भूखे भजन न होय" वाली बात तब मेरी समझ में आई ! कभी-कभी मन में संशय आता है कि भोजन हमारी शारीरिक ज़रूरत है या मानसिक ? क्यों कि जितने भोजन की कम मात्रा में हमारा पेट भरता है उतने में मन नहीं भरता ! उस पर भोजन चट-पटा और स्वादिष्ट हो तो, और क्या बात है ! आज कल अध्यात्मिक शिविरों में भी हम खूब एन्जॉय कर सकते है ! जैसे कि पॉपकॉर्न खाते हुए हम मूवी देखते है ना बस वैसे ही ! कितना आसान हो गया है ना आजकल सब कुछ ?
शायद इसी खा-पी कर फल-फूल रही संस्कृति को देख कर ही इन दिनों उपदेशकों की बाढ़-सी आ गयी है ! सलाह देने की, यह मत खाओ वो मत खाओ वगेरे-वगेरे ! हमारी सहज स्वाभाविक भूख को भी कोई दुसरे निर्धारित करे इससे गुलामी की और क्या बात हो सकती है ? भूख प्राकृतिक ज़रूरत है ! भूख मुझे भी लगती है, आपको भी लगती है हम सबको लगती है ! भूख उपदेशक को भी लगती है बस किसी-किसी की भूख स्थूल होती है और किसी की थोड़ी सूक्ष्म होती है ! भूख और भूखों के प्रति मेरे मन में कोई निंदा का भाव नहीं है, यकीन मानिये ! इस प्राकृतिक जरुरत के लिये भोजन प्यार से आराम से खाईये ! बस इतना ज़रूर ध्यान देने की जरुरत है की, हमारे आस-पास कोई भूखा तो नहीं है !