किसी शायर ने क्या ख़ूब कहा है “बड़े अजीब से इस इस दुनिया के मेले है
यूँ तो दिखती भीड़ है लेकिन फिर भी सब अकेले है” !
बोधि वृक्ष के नीचे बैठे बुद्ध हमें अकेले दिखाई देते है लेकिन उनका अकेलापन हमारी तरह नहीं अपने आप में संपूर्ण है ! कहीं पढ़ा है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर अपने सृजन में इतने अधिक डूब जाते थे कि चार-चार दिन तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकलते थे उन्हें समय का बोध ही नहीं होता था ! उनका अकेलापन नकारात्मक नहीं सृजनात्मक है ! लेकिन हमारा अकेलापन बिलकुल उस शायर के कहे अनुसार है ! मन का ख़ालीपन जीवन की किसी कमी को दर्शाता है ! शायद यही कमी,यही अकेलापन हमें जीवन में भौतिक विकास के मार्ग पर भी ले जाता है ! किंतु भौतिक पृष्ठभूमि पर किया गया बाह्य विकास फिर से दुःख,तनाव,अकेलेपन के मार्ग पर ही बढते रहना वर्तुल पर घूमते रहना है !
फिर दुःख,तनाव,अकेलेपन से बचने का क्या कोई उपाय है ? उपाय तो हम सब अपने अपने तरीक़े से करते ही है,निर्भरता एक ऐसा ही उपाय है ! अध्यात्म के पास उपाय से बेहतर समाधान मिलता है क्योंकि अध्यात्म उपाय सुझाने के लिए अकेलेपन को कोई समस्या नहीं मानता ! अध्यात्म कहता है अकेलापन व्यक्ति के अस्तित्व का ही हिस्सा है भले ही
कितना ही पीड़ादायी,भयभित करने वाला क्यों न हो इससे बचने के लियें कोई उपाय करने नहीं चाहिये !
व्यक्ति को इस सत्य को जैसा है वैसा स्वीकारना होगा सामना करना होगा ताकि मन एक नई क्रांति से गुज़र सके,उसिको महान मनोवैज्ञानिक अब्राहम मास्लो Self Actualization कहते है !