हर साल की तरह मौज,मस्ती,रंग,तरंग लिए होली हमारे द्वार पर दस्तक दे रही है ! सर्द हवाओं की सिहरन सूरज की तप्त होती किरणों से जैसे बौखलाई सी लगने लगी है और पहाड़ों के आँचल में छुपने का प्रयास कर रही है ! वन, उपवन, बाग़-बगीचों में कोयल की मीठी कुहू-कुहू सुनायी देने लगी है ! आम्र वृक्षों पर बौराई मंजरियों की सुगंध, कच्चे कैरियों की महक से हवाओं में अनोखी खुशबु भर रही है ! इस मौसम में गाँव में दूर-दूर तक पियराये सरसों के पीले खेत,गेहूं की लहलहाती फसले दिखायी देने लगती है ! अगर इस मौसम का लुत्फ़ उठाना है तो हमारे गाँव आना होगा, शहर में ऐसे नज़ारे कहाँ ?? खैर सर्द मौसम की विदाई और ग्रीष्म का आगमन हम सबके मन को भाने लगता है ! बदलते मौसम के साथ, बदलते रंगों के साथ हमारे चारो और जीवन का नव विकास दिखायी देने लगता है ! रूटीन जीवन मनुष्य के मन को नीरस बना देता है रोज वही सब काम करो कितना बोरिंग लगता है न ? जिससे मनुष्य एक मशीन की तरह हो जाता है मानसिक तनाव से भर जाता है ! शायद इन्ही सब बातों को ध्यान में रखकर हमारे त्यौहार बने होंगे ताकि मनुष्य अपनों के साथ कुछ पल बैठकर हंस बोल सके नाच गा सके, होली ऐसा ही एक त्यौहार है जिसमे रंग है मस्ती है हास परिहास है ! लेकिन कुछ लोग इस मनभावन उत्सव को भी हानिकारक रंग लगाने कीचड़ फेंकने का उत्सव बना देते है ! बुरा न मानो होली है कहकर दिल खोलकर गंदी-गंदी गालियां बक देते है और इसको कहते है होली ! बाहर के त्यौहार बाहर के रंग सब संकेत है हमारे भीतर मुड़ने के लिए, देखिये न संत गुलाल क्या खूब कहते है इन पंक्तियों को पढ़कर हमें भी असली होली की याद आ ही जाती है …
सतगुरु घर पर परलि धमारी, होरिया मै खेलौंगी !
जूथ जूथ सखियां सब निकरि, परलि ज्ञान कै मारी !
अपने प्रिय संग होरी खेलौं, लोग देत सब गारी !
अब खेलौं मन महामगन हुवै, छूटलि लाज हमारी !
सत् सुकृत सौ होरी खेलौं, संतन की बलिहारी !
कह गुलाल प्रिय होरी खेलौं, हम कुलवंती नारी !!