चीन में प्रसिद्द दार्शनिक हुआ था जिनका नाम है लाओत्सू ! लाओ का मतलब होता है आदरणीय वृद्ध ! हमारे बहुत सारे वृद्ध केवल वृद्ध होते है आदरणीय नहीं होते आदर देना हमारी मज़बूरी होती है और त्सू का मतलब होता है गुरु ! लाओत्से एक ऐसे ही आदरणीय वृद्ध गुरु हुए है जिनके छोटे-छोटे बहुमूल्य उपदेश ही ताओ नाम से प्रसिद्ध हुए है ! लाओत्सू का एक एक विचार कितना मौलिक है आप इस विचार से लगा सकते है !
"मन की श्रेष्ठता उसकी अतल निस्तब्धता में है"
और हमारे मन की ?? यह तो हर कोई अपने अपने मन से पूछने जैसा सवाल है ! शब्दों से खेलना भी एक कला है जो जीतनी सफाई से शब्दों से खेलता है उतना ही बड़ा विद्वान कहलाता है ! जिसके पास जिंदगी का जितना गहरा अनुभव होता है उसी अनुपात में वह शब्दों में गोलाई और भावों में गहराई भर लाता है ! इसके आलावा नियमित वाचन लेखन का भी बहुत बड़ा योगदान होता है ! कई बार अच्छा अनुभवी भी अपने अनुभव को अच्छे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाता ! सारा खेल शब्दों का है, और हम तो शब्दों के इस खेल से ही तो सामने वालों की क्षमता का अंदाजा लगाते है ! खेले खूब खेले शब्दों के इस खेल से किसी को कोई मनाई नहीं है हमारा तो पेशा ही है शब्दों से खेलने का :) !
शब्दों के इस खेल के पीछे बहुत सारे कारण होते है, कोई इसलिए शब्दों से खेलता है कि चुप रहना मुश्किल लगता है क्योंकि चुप्पी हमें काटती है बोलने के लिए शब्द उकसाते है बोलकर कहकर थोड़ा सुकून मिलता है ! कोई इसलिए बोलते है कि सारे लोग बोल रहे फिर मै ही चुपचाप सा क्यों बैठूं ! ऐसे बहुत से कारण है जिसके विस्तार में हमें जाना नहीं है ! लेकिन क्या आपको पता है जहाँ शब्द हमें दूसरों से जोड़ तो देते है वही खुद से तोड़ देते है याने की दूर कर देते है ! हम क्या है इसका परिचय शब्दों में बहुत कम निस्तब्धता में अधिक पाया जाता है ! निस्तब्धता हमें दूसरों से दूर करती है पर खुद के नजदीक कर देती है ! लाओत्सू कहते है चुप रहना निस्तब्ध होना नहीं है !
आपको याद होगा कई बार हम गुस्से में भी चुप बैठते है याने की चुप रहना नेगेटिव क्रिया है ! चुप रहने में और निस्तब्ध होने में जमीन आसमान का अंतर और गुणवत्ता का फर्क है ! यही फर्क लाओत्से केवल एक लाईन में ही हमें समझाते है वो कहते है … "मन की श्रेष्ठता उसकी निस्तब्धता में है " मतलब बोलने में नहीं ! और मुझे लगता है क्या पता निस्तब्धता को छूकर जब किसी के शब्द कंठ से बाहर आते होंगे तब इतने ही अद्भुत लगते होंगे जितने कि लाओत्सू के या किसी अन्य दार्शनिक, रहस्यदर्शियों के कवियों के लगते है !
कई बार किसी का एक छोटा सा विचार भी एक छोटी सी कविता भी मन को निशब्द कर देती है निस्तब्ध कर देती है !
"मन की श्रेष्ठता उसकी अतल निस्तब्धता में है"
और हमारे मन की ?? यह तो हर कोई अपने अपने मन से पूछने जैसा सवाल है ! शब्दों से खेलना भी एक कला है जो जीतनी सफाई से शब्दों से खेलता है उतना ही बड़ा विद्वान कहलाता है ! जिसके पास जिंदगी का जितना गहरा अनुभव होता है उसी अनुपात में वह शब्दों में गोलाई और भावों में गहराई भर लाता है ! इसके आलावा नियमित वाचन लेखन का भी बहुत बड़ा योगदान होता है ! कई बार अच्छा अनुभवी भी अपने अनुभव को अच्छे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाता ! सारा खेल शब्दों का है, और हम तो शब्दों के इस खेल से ही तो सामने वालों की क्षमता का अंदाजा लगाते है ! खेले खूब खेले शब्दों के इस खेल से किसी को कोई मनाई नहीं है हमारा तो पेशा ही है शब्दों से खेलने का :) !
शब्दों के इस खेल के पीछे बहुत सारे कारण होते है, कोई इसलिए शब्दों से खेलता है कि चुप रहना मुश्किल लगता है क्योंकि चुप्पी हमें काटती है बोलने के लिए शब्द उकसाते है बोलकर कहकर थोड़ा सुकून मिलता है ! कोई इसलिए बोलते है कि सारे लोग बोल रहे फिर मै ही चुपचाप सा क्यों बैठूं ! ऐसे बहुत से कारण है जिसके विस्तार में हमें जाना नहीं है ! लेकिन क्या आपको पता है जहाँ शब्द हमें दूसरों से जोड़ तो देते है वही खुद से तोड़ देते है याने की दूर कर देते है ! हम क्या है इसका परिचय शब्दों में बहुत कम निस्तब्धता में अधिक पाया जाता है ! निस्तब्धता हमें दूसरों से दूर करती है पर खुद के नजदीक कर देती है ! लाओत्सू कहते है चुप रहना निस्तब्ध होना नहीं है !
आपको याद होगा कई बार हम गुस्से में भी चुप बैठते है याने की चुप रहना नेगेटिव क्रिया है ! चुप रहने में और निस्तब्ध होने में जमीन आसमान का अंतर और गुणवत्ता का फर्क है ! यही फर्क लाओत्से केवल एक लाईन में ही हमें समझाते है वो कहते है … "मन की श्रेष्ठता उसकी निस्तब्धता में है " मतलब बोलने में नहीं ! और मुझे लगता है क्या पता निस्तब्धता को छूकर जब किसी के शब्द कंठ से बाहर आते होंगे तब इतने ही अद्भुत लगते होंगे जितने कि लाओत्सू के या किसी अन्य दार्शनिक, रहस्यदर्शियों के कवियों के लगते है !
कई बार किसी का एक छोटा सा विचार भी एक छोटी सी कविता भी मन को निशब्द कर देती है निस्तब्ध कर देती है !