२ अक्तूबर को महात्मा गांधी का जन्मदिन है ! प्रति वर्ष हम सब इस दिन को गांधी जयंती के रूप में मनाते है ! इस दिन को सारी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है ! गांधी जी के तीन बंदर हम सबको बहुमूल्य शिक्षा देते हुए पहला बंदर जिसने अपने हाथ आँखों पर रखे है, कहता है बुरा मत देखो ! दूसरा बंदर जिसने अपने हाथ कानों पर रखे है, कहता है बुरा मत सुनों ! तीसरा बंदर जिसने अपने हाथ मुंह पर रखे है, कहता है बुरा मत बोलो ! इन तीन बहुमूल्य सूत्रों को हमारे देश का बच्चा-बच्चा जानता है इसके बावजूद जिस अनुपात में इन दिनों बुराई बढ़ते ही जा रही है जो कि, हम सब अख़बारों में पढ़ रहे है हमारे आसपास देख रहे है यह हमारे लिए चिंता का और चिंतन का विषय है !
आदमी का जिस प्रकार पतन होता जा रहा है पशु भी शरमा जाय देखकर ! क्यों आदमी के आचार और विचार में भिन्नता आ गई है इन दिनों ? सभ्य, सुशिक्षित,सुसंस्कारी कहलाने वाला आदमी भीतर से इतना विक्षिप्त ? देखकर मानवता भी भयाक्रांत है ! लेकिन भयभीत होने से समस्याएं मिटती तो नहीं ! क्या हमने इन सूत्रों को विस्मृत कर दिया है ? या कही भूल हो रही है इन्हें सोचने में समझने में ? आईये इसी संदर्भ में ओशो का एक प्रवचन सुनते है ! अक्सर मेरा प्रयास यही रहता है कि कुछ नया आप सबको सुनाऊ ताकि आप सबको एक नए दृष्टिकोण से परिचित करा सकूँ !
ओशो से किसी मित्र का प्रश्न है यह बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो,बुरा मत बोलो, इन तीन सूत्रों के संबंध में
आपका क्या कहना है ?
ओशो कहते है … सूत्र तो जिंदगी में एक ही है … बुरे मत होओ ! ये तीन सूत्र तो बहुत बाहरी है ! भीतरी सूत्र तो बुरे मत होओ वही है ! और अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न सुने, तो कोई अंतर नहीं पड़ता ! और अगर कोई भीतर बुरा है और बुरे को न बोले, तो कोई अंतर नहीं पड़ता ! ऐसा आदमी सिर्फ पागल हो जायेगा ! क्योंकि भीतर बुरा होगा ! अगर बुरे को देख लेता तो थोड़ी राहत मिलती वह भी नहीं मिलेगी ! अगर बुरे को बोल लेता तो थोडा बाहर निकल जाता, भीतर थोडा कम हो जाता, वह भी नहीं होगा ! अगर बुरे को सुन लेता तो भी तृप्ति मिलती, वह भी नहीं हो सकेगी ! भीतर बुरा अतृप्त रह जाएगा ! नहीं, असली सवाल यह नहीं है ! लेकिन आदमी हमेशा बाहर की तरफ से सोचता है !
असली सवाल है होने का, असली सवाल करने का नहीं है ! मै क्या हूँ, यह सवाल है ! मै क्या करता हूँ, यह गौण है ! भीतर मनुष्य क्या है, उससे करना निकलता है ! हम जैसे है वही हमसे किया जाता है ! लेकिन हम चाहे तो धोखा दे सकते है ! बुराई भीतर दबाई जा सकती है ! दबाई हुई बुराई दुगुनी हो जाती है !
मै यह नहीं कह रहा हूँ कि बुरा करें ! मै यह कह रहा हूँ,बुराई को दबाने से बुराई से मुक्त नहीं हुआ जा सकता ! बुरे होने को ही रूपांतरित होना है ! इसलिए सूत्र तो एक है कि बुरे न हों ! लेकिन बुरे कैसे न होंगे, बुरे हम है ! इसलिए इस बुरे होने को जानना पड़े, पहचानना पड़े ! यही मै कह रहा हूँ कि यदि हम अपनी बुराई को पूरी तरह जान ले तो बुराई के बाहर छलांग लग सकती है !
लेकिन हम बुराई को जान ही नहीं पाते,क्योंकि हम तो यह सोचते है कि बुराई कही बाहर से आ रही है ! बुरे को देखेंगे तो बुरे हो जायेंगे,बुरे को सुनेंगे तो बुरे हो जायेंगे, बुरे को बोलेंगे तो बुरे हो जायेंगे ! हम तो यह सोचते है कि बुराई जैसे कही बाहर से भीतर की तरफ आ रही है ! हम तो अच्छे है, बुराई कैसे बाहर से आ रही है ! यह धोखा है बुराई बाहर से नहीं आती बुराई भीतर है ! भीतर से बाहर की तरफ जाती है बुराई ! गुलाब में कांटे बाहर से नहीं आते, भीतर की तरफ से आते है ! फूल भी भीतर की तरफ से आता है, वह भी बाहर से नहीं आता ! भलाई भी भीतर से आती है, बुराई भी भीतर से आती है, कांटे भी भीतर से फूल भी भीतर से !
इसलिए बहुत महत्वपूर्ण यह जानना है कि भीतर मै क्या हूँ ? वहां जो मै हूँ, उसकी पहचान ही परिवर्तन लाती है, क्रांति लाती है ! लेकिन शिक्षाएं ऐसी ही बाते सिखाए चली जाती है ! वे बहुत उपरी है, बहुत बाहरी है ! इसलिए सारी शिक्षाओं ने मिल कर ज्यादा से ज्यादा आदमी के आवरण को बदला है, उसके अंतस को नहीं ! और आवरण बदल जाए इससे क्या होता है ? सवाल तो अंतस के बदलने का है ! आवरण सुन्दर हो जाए तो भी क्या होता है ? सवाल तो अंतस के सुंदर होने का है !
हाँ, एक कठिनाई हो सकती है कि आवरण सुंदर बनाया जा सकता है और अंतस कुरूप रह जाए, तो आदमी दो हिस्सों में बंट जाए, असली आदमी भीतर हो, नकली आदमी बाहर हो ! जैसा कि है एक आदमी है नकली,जो हम बाहर होते है, और एक आदमी है असली ,जो हम भीतर होते है ! वह जो भीतर है वही है ! और अगर कही कोई परमात्मा है तो उसके सामने जब हम खड़े होंगे तो वह जो भीतर है वही दिखाई पड़ेगा ! वह जो नकली है वह छूट जायेगा, वह साथ नहीं होगा !
इसलिए कोई क्रांति करनी है तो आचरण में करने की उतनी चिंता मत करना, अंतस में करना, क्योंकि अंतस से आचरण आता है ! लेकिन समझाया कुछ ऐसा जाता है कि जैसे आचरण ही अंतस है ! तब आदमी आचरण को ही बदलने में लग जाता है ! आचरण बदल भी जाए तो भी अंतस नहीं बदलता ! अंतस बदले तो ही आचरण बदलता है !
मै सुबह कह रहा था कि , अगर कोई गेहूं बोए तो भूसा भी पैदा हो जाता है ! गेहूं तो अंतस है, भूसा आचरण है, बाहर है ! लेकिन अगर कोई भूसे को बोने लगे,तो गेहूं तो पैदा होता नहीं, भूसा भी सड जाता है ! गेहूं बोना चाहिए, तो भूसा भी आ जाता है बिना बोए ! और भूसा बोया, तो गेहूं तो आता ही नहीं, भूसा सड जाता है ! आचरण भूसा है, अंतस आत्मा है !
इसलिए सूत्र एक है … बुरे मत होओ !
लेकिन बुरे हम है ,मत होओ कहने से क्या होगा ? बुरे मत होओ, इसका अर्थ हुआ कि जो हम है बुरे उसे जाने, पहचाने ! इतना तय है कि कोई आदमी अपनी बुराई को पहचान ले तो बुरा नहीं रह जाता, बुरा होना असंभव है ! न मालुम कितने हत्यारों ने अदालत में इस बात की स्वीकृति की है कि हम हत्या होश में नहीं किये है ! हम बेहोश थे तब हो गई यह बात ! और कुछ हत्यारों ने तो यह भी कहा है कि उन्हें स्मरण ही नहीं है उन्होंने हत्या कब की ! तो पहले समझा जाता था कि वे झूठ बोल रहे है ! लेकिन अब मनोविज्ञान उनकी स्मृति की खोजबीन करके कहते है कि वे ठीक बोल रहे है ,उनको पता ही नहीं उन्होंने इतने बेहोश हो गए क्रोध में कि हत्या कर गए, वह उनकी स्मृति ही नहीं बनी, जब वे होश में आये तब हत्या हो चुकी थी ! जो गहरे में जानते है, वे कहते है, आदमी बुराई करता है सदा बेहोशी में ! कोई भी आदमी बुराई को होश में नहीं करता, नहीं कर सकता ! इसलिए असली सवाल है बेहोशी तोड़ने का है !
( नये समाज की खोज, से साभार प्रवचन -४ )