मैंने कही पढ़ा था कि, जब इंदिरा गांधी भारत कि प्रधान मंत्री थी तब गोल्डामेयर (Golda Meir ) इजरायल क़ी प्रधानमंत्री थी ! हुआ यूँ क़ी इंदिरा जी एक बार इजरायल गई हुई थी ! दोनों के बीच बातों के दौरान उन्होंने गोल्डा मेयर से कहा कि, और सभी चीजे दिखाई लेकिन यहूदी मंदिर नहीं दिखाया ? गोल्डा मायर थोड़ी सकुचाई कि, कैसे यह बात कहे कि यहूदी मंदिर में स्त्रियों को प्रवेश नहीं है ! एक छज्जा दूर ...ऊपर उनके लिये अलग से बनाया है ! मगर जब इंदिरा जी ने जोर दिया देखने के लिये तो गोल्डा मेयर लेकर गई उन्हें, दोनों छज्जे पर बैठी ! इंदिरा जी जब वापस लौटी तो दिल्ली में किसी ने उनसे पूछा क़ी कुछ खास चीजे वहाँ पर देखी ? तो इंदिरा जी ने जवाब दिया और सब तो देखा ही देखा है पर खास बात यह देखी कि, इजरायल में प्रधान मंत्री छज्जों पर बैठ कर प्रार्थना करते है मंदिर में नहीं ! इंदिरा जी ने समझा होगा कि, इस प्रकार का आयोजन प्रधान मंत्रियों के लिये खास किया जाता होगा ! लेकिन यह आयोजन स्त्रियों को मंदिर में जाने से रोकने का उपाय था !
इतिहास के पन्ने पलटकर देखे तो पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं कि स्थिति कभी बेहतर नहीं थी ! उसके साथ परिवार वालों ने, समाज ने हमेशा भेद भाव वाला रवैय्या अपनाया है ! कुछ महान कवियों ने उसकी प्रशंसा में कविता, गीत लिखे तो कहीं पर "यत्र नारी पूज्यन्ते " जैसे महान सूत्रों का हमारे शास्त्रों में समावेश किया है! साथ ही साथ कुछ असम्मान जनक बाते भी लिखी है संदर्भ जो भी रहा हो ! जिन्होंने भी ऐसा लिखा होगा मै तो कहती हूँ ...स्त्री से भयभीत रहा होगा या फिर स्त्री को समझ ही नहीं पाया होगा ! अगर स्त्रियों ने शास्त्र लिखे होते तो स्थति उलट होती, लिखना तो दूर कि बात स्त्रियों को पुरुषोने शास्त्र पुरानों को पढने तक नहीं दिया !
धीरे-धीरे ही सही आज परिस्थिति बदल रही है !स्त्री को अपनी स्थिति का भान होने लगा है ! पुरुषों से समान हक्क पाने का उसका सपना साकार होने लगा है !बस एक बात कहना चाहती हूँ ....कमसे कम अपने परिवार और देश क़ी सामाजिक सांस्कृतिक उत्थान के लिये महिलाओं के प्रति अशोभनीय व्यवहार में सूधार होना अत्यन्त जरुरी है !
उबटन से ऊबी नहीं, मन में नहीं उमंग ।
जवाब देंहटाएंहमारी शुभकामनाएं --
आज भारतीय नारी ब्लॉग पर यह टिपण्णी पोस्ट की है -
एक बेटी NIT दुर्गापुर से बी टेक है-
दूसरी झाँसी से कर रही है-
आगे बढ़ें नारियां -
सादर
पहरे है परिधान नव, सजा अंग-प्रत्यंग ।
सजा अंग-प्रत्यंग , नहाना केश बनाना ।
काजल टीका तिलक, इत्र मेंहदी रचवाना ।
मिस्सी खाना पान, महावर में ही जूझी ।
करना निज उत्थान, बात अब तक ना बूझी ।।
रविकर जी,
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका !
.@ कमसे कम अपने परिवार और देश क़ी सामाजिक सांकृतिक उत्थान के लिये महिलाओं के प्रति अशोभनीय व्यवहार में सूधार होना अत्यन्त जरुरी है !
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ , और इसे प्राथमिकता के आधार पर लेना चाहिए !
सही कहा आपने
जवाब देंहटाएं....अगर स्त्रियों ने शास्त्र लिखे होते तो स्थति उलट होती
सार्थक लेख.
सादर !
सुमन जी इंदिरा जी की समझ हम सभी से बहुत आगे थी और ये परंपरा अपने देश से कौन अलग है यहाँ भी स्त्रियों को भेदभाव पूर्ण रवैय्या झेलना पड़ा है स्वयं इंदिरा जी ने भी दक्षिण में ये झेला था .बहुत सराहनीय प्रस्तुति.ब्लॉग जगत में ऐसी आती रहनी चाहिए.आभार हमें आप पर गर्व है कैप्टेन लक्ष्मी सहगल
जवाब देंहटाएंबिलकुल सच कहा आपने....पहले स्त्रियों को पढ़ने लिखने के अधिकार नहीं थे...सो उन्होंने ही लिखा और फिर नियम बना कर सालों स्त्रियों का शोषण करते रहे....
जवाब देंहटाएंअब भी कर रहे हैं....
सादर
अनु
स्त्रियॉं की सही परिस्थिति कहती पोस्ट .... सुधार होना ज़रूरी है
जवाब देंहटाएंपुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों के साथ हमेशा भेदभाव होता आया है चलिए ख़ुशी इस बात कि है कि आज बड़ी तेजी से नारी अपने बराबरी के हक के लिए आगे आ रही है जागरूकता आ रही है ऐसी बात नहीं कि पुरुष वर्ग साथ नहीं दे रहा है बल्कि समझदार पुरुष प्रोत्साहि भी कर रहे हैं बहुत अच्छी पोस्ट हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंआशावान हैं हम आज
जवाब देंहटाएंआप सब भी हो जाइये
नासमझों को प्यार से समझाइये
वैसे समय अपने आप
भी बदल रहा है
हमारा तो भाई सब कुछ ही
पैदा होने लेकर आज तक
नारी के होने से ही चल रहा है!
मेरी समझ में एक बात आज तक नहीं आई कि अक्सर लोग स्त्रियों से घबराते हैं, कहते हैं कि वे उन्हें समझ नहीं पाते(क्या दूसरे आदमियों को एकदम समझ लेते हैं)जब कि जन्म से,किसी न किसी रूप में वे उनके जीवन के लिये अनिवार्य रहीं,उनके बिना काम नहीं चला .स्वयं को विशेष प्रकार का मानने की मानसिकता रखने के कारण कभी किसी नारी,चाहे वह उनकी माँ या बहिन ही क्यों न हो ,को अपने समान एक व्यक्ति नहीं मान पाते.
जवाब देंहटाएंमहिलाओं के प्रति अशोभनीय व्यवहार में सूधार होना अत्यन्त जरुरी है !
जवाब देंहटाएंRECENT POST,,,इन्तजार,,,
सुमन जी, आपकी बिलकुल सही है, कहने को हम २१वि सदी में हैं मगर सोच वही पुरानी. भारत में भी कुछ मंदिरों में पहले स्त्रीयों के जाने पे रोक थी , मगर जब नारी शक्ति ने सिर उठाया तो उसने खुद अपना वो अधिकार पा लिया. इसलिए अधिकार की लड़ाई स्त्री जाती सदियों से लड़ रही है और लड़कर ही हासिल करेगी.
जवाब देंहटाएं"यत्र नारी पूज्यन्ते " जैसे महान सूत्रों का हमारे शास्त्रों में समावेश किया है! साथ ही साथ कुछ असम्मान जनक बाते भी लिखी है.
जवाब देंहटाएंउपरोक्त कथ्य व्यवहारिक तौर पर सही दिखाई पडता है परंतु मेरी समझ से शाश्त्रों में असम्मान जनक नही लिखा गया होगा, क्योंकि हमारी व्यवस्था में नर नारी दोनों को एक गाडी के दो पहिये बताया गया है तो शाश्त्रकार एक पहिये को अच्छा व दूसरे को खराब बताते तो उनकी बात का ही खंडन होता.
दरअसल सारी गडबड परवर्ती लिक्खाडों ने की है, अपनी सुविधा के हिसाब से नारी को दबाने के लिये शाश्त्रों से छेडछाड की गई होगी.
वेद कालीन समय को भी छोड दें तो कुछ ही साम्य पूर्व लिखी गई रामायण महाभारत में भी कई क्षेपक सुविधानुसार जोड दिये गये हैं, यहां तक की कबीर का साहित्य भी इनसे अछुता नही रह पाया है.
आपका आलेख सटीक और उद्देष्य में सफ़ल है, शुभकामनाएं.
रामराम
भूल सुधार :-
जवाब देंहटाएंसाम्य = समय
पढा जाये.
रामराम.