समर्थ रामदास जी के जीवन काल में घटी एक प्यारी सी कहानी है यह जो कि मेरी प्रिय कहानी है ! संत रामदास एक बार रामायण की कथा सुना रहे थे दूर-दूर से लोग कथा श्रवण करने आने लगे हनुमान को भी इस बात की खबर लग गयी ! हनुमान भी कंबल ओढ़ कर जिज्ञासावश नियमित कथा श्रवण करने आने लगे कि देखे यह आदमी हजारो साल पहले घटी घटना को सच कहता है या झूठ कहता है यह देखने ! लेकिन रामदास हमेशा ऐसे कथा को प्रेम से कहते जैसे उन्होंने अपने आँखों देखि कह रहे हो, लेकिन एक दिन एक जगह थोड़ी मुश्किल हो गयी ! कथा में एक जगह समर्थ ने कहा कि "हनुमान लंका गए अशोक वाटिका में सीता से मिलने तो वहाँ उन्होंने देखा कि चारो तरफ सफ़ेद ही सफ़ेद फूल खिले हुए है "! हनुमान जी श्रोताओं में कंबल ओढ़कर छिपे बैठे थे, गुस्से में आ गए कंबल फ़ेंक कर खड़े हो गए ! और कहा कि "यह बात झूठ है और तो सब कथा ठीक है मगर सफ़ेद फूलों वाली घटना बिलकुल झूठ है इसमे संशोधन करो "! फूल सफ़ेद नहीं थे, फूल लाल थे !
रामदास भी कहाँ मानने वाले थे, कहा अपनी बकवास बंद कर और चुपचाप शांति से कथा का आनंद लो, यह तुम्हारा काम नहीं यह निर्णय करना कि फूल सफ़ेद थे या लाल थे, मैंने जो कह दिया सो कह दिया रामदास संशोधन नहीं करता ! हनुमान ने कहा यह तो हद्द हो गयी मै खुद गवाह हूँ इस बात का मै खुद अशोक वाटिका में गया था तुम कभी गए ही नहीं तो फिर कैसे कह सकते हो कि फूल सफ़ेद थे ! दोनों के बीच जब झगड़ा अधिक बढ़ा तो हनुमान ने गुस्से से कहा कि "फिर श्री राम के पास चलते है वही इसका निर्णय करेंगे" और रामदास को राजी कर अपने कंधे पर बिठाकर श्री राम के पास चल दिए ! श्री राम जी ने अपने दोनों प्रिय भक्तों की बात ध्यान से सुनकर हनुमान से कहा … "हनुमान तुम नाहक इन बातों में मत उलझो रामदास ठीक कहता है फूल सफ़ेद ही थे ! हनुमान का क्रोध बढ़ता ही जा रहा था यह तो ज्यादती हो गयी हनुमान ने सीता से पूछा अब तो वही मात्र इस घटना की गवाह थी ! सीता ने कहा "हनुमान तुम इस कथा के झंझट में मत पड़ो मैंने भी देखा था अशोक वाटिका में फूल सफ़ेद ही थे लेकिन तुम क्रोध से इतने भरे थे कि तुम्हारी आँखे लाल सुर्ख हो गयी थी इसलिए तुम्हे सफ़ेद फूल लाल दिखायी दे रहे थे "!
याद कीजिये हम भी कहीं ऐसे ही किसी की पोस्ट तो पढने नहीं जाते है ?? किसी के विचारों का यूजफुल होना यूजलेस होना हमारी आँख पर हमारी धारणाओं पर तो निर्भर नहीं करता ?? कि हम किस प्रकार से उस पोस्ट को पढ़ रहे है ! अगर हम उस पोस्ट में सार्थक की जगह हमारी धारणाओं की वजह से निरर्थक को ही देख रहे है और आँखे गुस्से से लाल है दुश्मनी से मन लहूलुहान है फिर तो कुछ भी सार्थक कैसे दिखायी देगा ! ऊपर की कहानी में सच में ऐसा हुआ या नहीं यह बात महत्वपूर्ण नहीं है, कहानियाँ सिर्फ प्रतीकात्मक होती है और समय के साथ बदलती रहती है !
बहुत बहुत आभार कविवर !
जवाब देंहटाएंआपने कथा हरे रंग से ही क्यों लिखी ? :)
जवाब देंहटाएंहरा या नीला :) ??
हटाएंगुलाबी , और गुलाब की खुशबु भी साथ है !! सच्ची . . . . . . :)
हटाएंसच्ची गुलाबी :) ??
हटाएंअच्छी बात है लाल नहीं है !
:)
हटाएंवाह... सटीक और लाजवाब प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@भजन-जय जय जय हे दुर्गे देवी
बहुत ही रोचक कथा है और इस विषय पर मैंने अपने ब्लॉग पर गाहे ब गाहे लिखा भी है. मगर बहुतायत चश्मा लगाकर पढने वालों की ही है! अभी अभी एक ब्लॉग पर किसी ने अपने किसी दिवंगत आत्मीय स्वजन के जन्मदिवस पर एक कविता लिखी थी, जिसमें स्पष्ट वर्नन था कि उन्होंने उनके चित्र के सामने पुष्पांजलि अर्पित की. एक बहुत "प्रसिद्ध" ब्लॉगर की टिप्पणी थी कि उन्हें जन्मदिन की शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंइस बात पर वह स्पष्टीकरण दे सकते हैं कि जन्मदिन पर शुभकामनाएँ तो मृत व्यक्ति को भी दी जा सकती है, लेकिन उनका इस प्रकार की टिप्पणियों का ट्रैक रिकॉर्ड देखते हुये समझा जा सकता है!!
सार्थक पोस्ट!!
सार्थक टिप्पणी के लिए आभार सलिल जी, !
हटाएंसार्थक पोस्ट ..बहुत बढ़िया..
जवाब देंहटाएंअक्सर यही होता है. सबके अपने अपने चश्में होते हैं, समर्थ गुरू रामदास जी दृष्टांत से आपने वर्तमान के कुछ ब्लागरों के चश्मों का सही निरूपण किया है, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत बहुत आभार ताऊ जी !
हटाएंजा कि रही भावना जैसी। सुंदर सार्थक कहानी के लिये धन्यवाद सुमन जी और उसका संदर्भ हमारे लेखों को देखने के नजरिये से जोडकर।
जवाब देंहटाएंजाकी रही भावना जैसे ... सच है कि मन कि स्थिति पे निर्भर करता है ...
जवाब देंहटाएंमन चंगा तो कठौती में गंगा ...
सुन्दर सन्देश हैं आपके इस पोस्ट में.
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