बुधवार, 6 फ़रवरी 2019

अहंकार अमरबेल है !

किसी भी वृक्ष पर
फैली हुई अमरबेल
धीरे-धीरे उस वृक्ष का
सारा रस चूसकर
उसके जीवन को ही
लील लेती है !
दूर-दूर तक फैला
मैं मैं करनेवाला
हमारा अहंकार
अमरबेल ही तो है
जिसमें कोई जड़
नहीं दिखती !
उपरसे हरा भरा
भीतरसे रुखा सूखा
जीवन दिखता है
पर !

11 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ फरवरी २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  2. बहुत अच्छी और सच्ची बात ,सुंदर रचना... ,सादर स्नेह

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  3. वाह बहुत गहरा चिंतन..
    अंलकार और अमर बेल गहन दृष्टि ।

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  4. बहुत-बहुत सुंदर । गहरी बात कही है आपने। कम शब्दों में सागर पिरोया है। शुभकामनाएं आदरणीय सुमन जी।

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  5. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 136वां बलिदान दिवस - वासुदेव बलवन्त फड़के और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  6. सुंदर कृति। सचमुच अहंकार किसी परजीवी की तरह व्यक्ति को लील ही जाता है।

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  7. अभिशप्त वृक्ष, सहचरी क्रूर, तू अमरलता, निष्ठुर कितनी -सतीश सक्सेना
    **********************************************************
    वह दिन भूलीं कृशकाय बदन,
    अतृप्त भूख से , व्याकुल हो,
    आयीं थीं , भूखी, प्यासी सी
    इक दिन इस द्वारे आकुल हो
    जिस दिन से तेरे पाँव पड़े
    दुर्भाग्य युक्त इस आँगन में !
    अभिशप्त ह्रदय जाने कैसे ,
    भावना क्रूर इतनी मन में ,
    पीताम्बर पहने स्वर्णमुखी, तू अमरलता निष्ठुर कितनी !

    सोंचा था मदद करूँ तेरी
    इस लिए उठाया हाथों में ,
    आश्रय , छाया देने, मैंने
    ही तुम्हें लगाया सीने से !
    क्या पता मुझे ये प्यार तेरा,
    मनहूस रहेगा, जीवन में ,
    अनबुझी प्यास निर्दोष रक्त
    से कहाँ बुझे अमराई में !
    निर्लज्ज,बेरहम,शापित सी,तुम अमरलता निर्मम कितनी !

    धीरे धीरे रस चूस लिया,
    दिखती स्नेही, लिपटी सी !
    हौले हौले ही जकड़ रही,
    आकर्षक सुखद सुहावनि सी
    मेहमान समझ कर लाये थे
    अब प्रायश्चित्त, न हो पाए !
    खुद ही संकट को आश्रय दें
    कोई प्रतिकार न हो पाये !
    अभिशप्त वृक्ष, सहचरी क्रूर , बेशर्म चरित्रहीन कितनी !

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  8. अमरबेल तो फिर भी औषधि है, कुछ उपयोग हो ही जायेगा, हमारा अहंकार तो नाश ही करेगा अपना या पराया......
    सुन्दर रचना

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  9. वाक़ई अहंकार ऐसा ही होता है । सच पूछिए तो अमरबेल से भी अधिक विनाशकारी । बहुत अच्छी रचना है यह आपकी । किसी भी अहंकारी की आंखें खोल देने वाली ।

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