किसी भी वृक्ष पर
फैली हुई अमरबेल
धीरे-धीरे उस वृक्ष का
सारा रस चूसकर
उसके जीवन को ही
लील लेती है !
दूर-दूर तक फैला
मैं मैं करनेवाला
हमारा अहंकार
अमरबेल ही तो है
जिसमें कोई जड़
नहीं दिखती !
उपरसे हरा भरा
भीतरसे रुखा सूखा
जीवन दिखता है
पर !
फैली हुई अमरबेल
धीरे-धीरे उस वृक्ष का
सारा रस चूसकर
उसके जीवन को ही
लील लेती है !
दूर-दूर तक फैला
मैं मैं करनेवाला
हमारा अहंकार
अमरबेल ही तो है
जिसमें कोई जड़
नहीं दिखती !
उपरसे हरा भरा
भीतरसे रुखा सूखा
जीवन दिखता है
पर !
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ फरवरी २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत अच्छी और सच्ची बात ,सुंदर रचना... ,सादर स्नेह
जवाब देंहटाएंवाह बहुत गहरा चिंतन..
जवाब देंहटाएंअंलकार और अमर बेल गहन दृष्टि ।
बहुत-बहुत सुंदर । गहरी बात कही है आपने। कम शब्दों में सागर पिरोया है। शुभकामनाएं आदरणीय सुमन जी।
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 136वां बलिदान दिवस - वासुदेव बलवन्त फड़के और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंकम शब्दों में गहरी बात
जवाब देंहटाएंसुंदर कृति। सचमुच अहंकार किसी परजीवी की तरह व्यक्ति को लील ही जाता है।
जवाब देंहटाएंगहरी बात
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
अभिशप्त वृक्ष, सहचरी क्रूर, तू अमरलता, निष्ठुर कितनी -सतीश सक्सेना
जवाब देंहटाएं**********************************************************
वह दिन भूलीं कृशकाय बदन,
अतृप्त भूख से , व्याकुल हो,
आयीं थीं , भूखी, प्यासी सी
इक दिन इस द्वारे आकुल हो
जिस दिन से तेरे पाँव पड़े
दुर्भाग्य युक्त इस आँगन में !
अभिशप्त ह्रदय जाने कैसे ,
भावना क्रूर इतनी मन में ,
पीताम्बर पहने स्वर्णमुखी, तू अमरलता निष्ठुर कितनी !
सोंचा था मदद करूँ तेरी
इस लिए उठाया हाथों में ,
आश्रय , छाया देने, मैंने
ही तुम्हें लगाया सीने से !
क्या पता मुझे ये प्यार तेरा,
मनहूस रहेगा, जीवन में ,
अनबुझी प्यास निर्दोष रक्त
से कहाँ बुझे अमराई में !
निर्लज्ज,बेरहम,शापित सी,तुम अमरलता निर्मम कितनी !
धीरे धीरे रस चूस लिया,
दिखती स्नेही, लिपटी सी !
हौले हौले ही जकड़ रही,
आकर्षक सुखद सुहावनि सी
मेहमान समझ कर लाये थे
अब प्रायश्चित्त, न हो पाए !
खुद ही संकट को आश्रय दें
कोई प्रतिकार न हो पाये !
अभिशप्त वृक्ष, सहचरी क्रूर , बेशर्म चरित्रहीन कितनी !
अमरबेल तो फिर भी औषधि है, कुछ उपयोग हो ही जायेगा, हमारा अहंकार तो नाश ही करेगा अपना या पराया......
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
वाक़ई अहंकार ऐसा ही होता है । सच पूछिए तो अमरबेल से भी अधिक विनाशकारी । बहुत अच्छी रचना है यह आपकी । किसी भी अहंकारी की आंखें खोल देने वाली ।
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