धारणा,
कांच की पारदर्शी
दीवार
जैसी होती है !
जब तक उससे
खुद टकरा नहीं जाते
तब तक
पता ही नहीं चलता
कि दीवार है !
सबकी अपनी-अपनी
कांच की दीवारे है
जिसमे सिमित
प्रतिबिंम्बित
सबका अपना-अपना
आकाश है .. !
कांच की पारदर्शी
दीवार
जैसी होती है !
जब तक उससे
खुद टकरा नहीं जाते
तब तक
पता ही नहीं चलता
कि दीवार है !
सबकी अपनी-अपनी
कांच की दीवारे है
जिसमे सिमित
प्रतिबिंम्बित
सबका अपना-अपना
आकाश है .. !
सबसे पहले तो स्वागत है आपका ब्लॉग पे पुनः आने का ...
जवाब देंहटाएंसच है की हर किसी के अपने अपने दायरे होते हैं जो कई बार दिखाई नहीं देते शीशे की तरह पारदर्शी होते हैं ... इन दीवारों को भी खुद ही तोड़ना होता है ...
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (10-09-2016) को "शाब्दिक हिंसा मत करो " (चर्चा अंक-2461) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सचमुच बहुत ही खूबसूरती से और बड़े ही नायाब प्रतीक के माध्यम से धारणा या पूर्वाग्रह को चित्रित किया है. कुछ लोग तो इससे टकराने के बाद भी नहीं समझा पाते कि यह दीवार है उन्हीं की बनाई हुई, जो उन्हें चोट पहुंचा रही है. उन्हें यह भी खेल लगता है और इसी में मज़ा आता है उन्हें. शीशे में क़ैद एक पशु की तरह, वे दया के पात्र हैं!
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी रचना भगिनी सुमन!!
एकदम सच. असीम का भ्रम, सीमाओं का सच.
जवाब देंहटाएंगहन बात कितनी सहजता से लिख दी
जवाब देंहटाएंgagar mein sagar
जवाब देंहटाएंये बात लिखने के लिये भावुकता का कितना बड़ा दौरा झेलना पड़ता है, ये वो लिखने वाला ही समझ सकता है।
जवाब देंहटाएंये कांच की छत ही तो भ्रम है इसे तोड कर ही अपना आकाश पाय जा सकता है।
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