क्या चाह है वो
नभ बाहों में
भर लेने की,
या की
खोज है वो
खुद को
पा लेने की,
या फिर
तृष्णा है वो
बूंद-बूंद कर
पूरा सागर ही
पी लेने की,
आहा !
सृजन की ये
कैसी मीठी, मधुर
वेदना है जो
जन्म देती है
हर बार एक
नयी रचना को … !!
बहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : आमि अपराजिता.....
सही कहा आपने. और इसका आनंद तो बस सृजन करने वाला ही जानता है.
जवाब देंहटाएंआज आपने बहुत प्यारी बात याद दिला दी... बल्कि यह तो मेरा कॉपीराइट मुहावरा है... मेरे ओशो सखा चैतन्य आलोक, मेरी प्रत्येक रचना के प्रथम "श्रोता" हैं.. जबतक कोई भी रचना उन्हें फोन पर सुना न लूँ, तब तक ब्लॉग पर पोस्ट नहीं करता. हमारी बातचीत की शुरुआत ही इसी बात से होती है, "सर जी! कल रात से दिमाग में लेबर-पेन हो रहा था. अब जाकर प्रसव हुआ है!"
जवाब देंहटाएंऔर उनका उत्तर होता है, "चलिये मुँह दिखाइये बच्चे का!"
सृजन कोई भी हो एक पीड़ा उसके पूर्व होती ही है. किंतु "पीड़ा में आनन्द जिसे हो - आए मेरी मधुशाला!"
बहुत ही सरल और सुन्दर रचना!
एक बेहतरीन रचना के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंहर सृजन नए सृजन को आकाश देता है
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
रक्षाबंधन की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ !
सादर
सृजन का आनद बस भोगने वाला ही जानता है ... और रचना का आनंद हर कोई ले लेता है ...
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा रचना और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ
रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनायें....
यह आनंद अनूठा है !
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