मंगलवार, 25 जनवरी 2011

आकाश में उड़ने का सुख ! (कहानी )

                
            जैसे ही ऋतू ने करवट बदली फूलों का मौसम लगभग खत्म हो चूका था ! पेड़ की पत्तियां झड़ने लगी थी! कुछेक जर्द पत्ते शाखाओं से टूटकर जमीं पर गिरकर अपना अस्तित्व खोने लगे थे! कुछ दिनोंसे देख रही हूँ चिड़िया का जोड़ा पेड़ के कही आस पास दिखाई नहीं दे रहा था! शायद किसी सुदूर प्रान्त में चला गया हो, मैंने सोचा ! बड़े जतन से तिनके-तिनके को जोड़कर बनाया हुआ घोंसला अब तिनका-तिनका बिखर गया था घोंसले मे दिखाई दे रहे थे केवल कुछ अन्डो के टूटे-फूटे अवशेष मात्र, जैसे सब कुछ बिखर गया था पेड़ की दुर्दशा पर मेरी आँखें भर आई थी! यही पेड़ कभी कितना हरा-भरा लगता था! फूल पत्तियों से लदा हुआ! दूर तक फैली लम्बी शाखाएं और पेड़ पर था चिड़िया का घोंसला, भरा पूरा चिड़िया का परिवार मानो कल की ही बात हो !
              उस वर्ष बहुत जोरों की बारिश हुई थी बाढ  का पानी घरों मुहल्लों में घुस आया था! उस बाढ के पानी मे जाने कहाँ किस जंगल के पेड़ का बीज बह कर आया होगा जो मेरे घर के पिछवाड़े की खाली ज़मीन में अंकुरित हो कर पौधा बना! मैंने अपनी जिद्द से उसे नष्ट करने से बचाया था! उपयुक्त खाद पानी, भरपूर स्नेह पाकर धीरे-धीरे पौधा पेड़ का आकार लेने लगा! मैं उसके प्रति कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हो गयी थी! मेरे लिए वह एक मूक-पेड़ नहीं कुछ ज्यादा गहरा आत्मीय सम्बन्ध बनाया था मैंने  उसके साथ! उसके पास बैठकर उससे बातें करना अपना सुख दुःख बांटना मुझको बेहद अच्छा लगता! उसकी सघन छाया में बैठकर अपनी तन्हाई के अनगिनत पल बिताए थे मैंने! उसकी छाया में बैठे बैठे कितने  ही गीतों कविताओं का जन्म हुआ था! कुछ ही दिनों में उस पर छोटी-छोटी कलियाँ भी आने लगी थी लाल-लाल खूबसूरत फूलों से सारी शाखाएं भर गयी थी! उस पेड़ के फूल मुझे बहुत सुन्दर और अनूठे लगते थे! मैं अपनी कमरे की खिड़की से उस फूलों से लदे पेड़ को घंटो निहारती रहती! उसकी हर बात मुझे बहुत अच्छी लगती थी! वह मेरे लिए अद्वितीय पेड़ लगता था!
               एक दिन सुबह सुबह चिड़िया की चहचहाट से मेरी नींद खुल गयी! मैंने अपने कमरे की खिड़की जो की घर के पिछवाड़े खुलती है से देखा तो बस देखते ही रह गयी! नीले पंखों वाली खूबसूरत चिड़िया का जोड़ा आया था पेड़ पर! लगता है मेरे पेड़ पर रहने आया है! मैं मन ही मन बहुत खुश हुयी अब मेरा पेड़ भरा पूरा आबाद जो होने जा रहा था! रोज़ सुबह उठ कर चिड़ियों का दाना चुगने जाना, फिर सांझ ढलते ही पेड़ पर लौटना, उनकी हर छोटी सी छोटी गति विधियों को ध्यान से देखना, यही मेरा नित्य क्रम बन गया था! एक दिन कुछ जल्दी ही पेड़ पर लौट आया था चिड़िया का जोड़ा! चोंच में कुछ तिनको को साथ लिए हुए! जाने रोज़ कहाँ कहाँ से इन तिनको को उठा लाते और फिर इन तिनकों को जोड़-जोड़ कर घोंसला बुनते शायद चिड़िया ने अपना परिवार बढाने की सोंची है! मै मन ही मन हंस लेती हूँ! इन तिनको को जोड़-जोड़ कर घोंसले का निर्माण करने वाली चिड़िया तब मुझे किसी कलाकार से कम नहीं लगी थी! घोंसला बुनते उन दोनों को बड़े ध्यान से देखते हुए सोंचती हूँ की हर प्राणी हर जीव की प्राणों की गहराई में ही कहीं छुपी होनी चाहिए नीड़ निर्माण की प्रबल आकांक्षा!
             इधर कुछ दिनों से मैं अपने काम में बहुत व्यस्त हो गयी थी बहुत दिनों तक उनकी खोज खबर नहीं ले पायी थी! उस दिन रविवार था, छुट्टी का दिन! मैं अपने सारे काम शीग्रता से निपटा कर अपने कमरे में आराम करने चली आई थी! अचानक कुछ शोर हुआ, चिड़ियों का जाना पहचाना शोर! चीर परिचित चिव-चिव-चिव-चिव का स्वर सुनाई देने लगा! किन्तु इन परिचित स्वरों में कुछ अपरिचित स्वर भी सम्मिलित थे! मैंने जिज्ञासा वश पिछवाड़े जाकर देखा, और देखकर दंग रह गयी थी! चिड़िया के दो छोटे-छोटे बच्चे निकल आये थे और घोंसले से झाँक झाँक कर शोर मचा रहे थे! चिड़िया का जोड़ा अपने चोंच में कुछ दाने लिए हुए था शायद इन्ही दानों की वजह से दोनों शोर मचा मचा कर आसमान सर पर उठा रहे थे! चोंच में चोंच डाल कर अपने बच्चों को दाना चुगाते उन माता पिता को बड़ी देर तक देखती रही भाव-विभोर सी होकर! बच्चे दिन-ब-दिन बड़े होते गए बहुत दिन बीत गए!
             आज पहली बार दोनों बच्चे अपने घोंसले से निकल कर बाहर आये थे! एक मजबूत शाखा पर कर बैठ गए! कुछ भयभीत से कुछ आश्चर्य विमुग्ध बाहर की दुनिया को आज पहली बार देखकर कुछ पल अचंभित रह गए थे! दोनों अब तक घोंसले से कभी बाहर नहीं निकले थे दोनों! माँ है कि ऊँची डाल बार बैठे गुहार पर गुहार दे रही थी! उड़ने के लिए उकसा रही थी! माँ कि गुहार सुन कर चिड़ियों ने अपने पंख थोड़े से फडफडाये किन्तु घोंसले कि सुरक्षा घर का मोह शायद उनको उड़ने से रोक रहा था! या फिर अपने पंखों पर अभी भरोसा नहीं आया था! पहले तो कभी पंख खोल कर नहीं उड़े थे! उनके मन में अनेक शंकाएं अनेक दुविधाएं, शायद उड़ेंगे भी या नहीं, हिम्मत जुटा नहीं पा रहे थे दोनों! उनकी इस दुविधा को देखकर माँ दूर से ही टेर पर टेर दे रही थी मैं सांस रोके इस दृष्य को देख रही थी! धीरे-धीरे चिड़ियों ने अपने पंख फडफडाये थोडा और उड़े, फिर थक कर बैठ गए शाखा पर, अब जाकर अपने पंखो पर थोडा भरोसा आया होगा! थोडा और हवा में पंख फडफडाये अब की बार थोड़ी ऊँची उड़ान भरी दोनों ने और फिर लौट आये वापिस अपने घौंसले मे! अब तो रोज़ रोज़ उड़ने लगे ऊँची से ऊँची डाल पर कूदने फांदने लगे जोर-जोर से शोर मचाने लगे अब तो पेड़ भी छोटा पड़ने लगा था दोनों को उड़ने के लिए! तब जाकर उन्हें आकाश में उड़ने की तमन्ना जाग उठी! फिर एक दिन सुबह के गए सांझ न लौटे वापिस घौंसले में! बहुत दिनों से देख रही हूँ पेड़ का सारा आकर्षण न जाने कहाँ चला गया था! चिड़िया का भरा-पूरा परिवार, बड़े जतन से तिनका-तिनका जोड़कर बनाया हुआ घौंसला सब कुछ बिखर गया था!
             मैंने अपनी नम हुयी आखों को पोंछते हुए दूर आकाश की ओर देखा! दूर-दूर तक फैला हुआ नीला आकाश, असीम अनंत आकाश, बड़ा रहस्यमयी लगा! अब भी कुछ पंछी आकाश में उड़ रहे थे उन उड़ते पंछियों को देखकर लगा सच-मुच आकाश में उड़ने का सुख ही कुछ ऐसा है जिसके लिए परिवार का मोह घोंसले की सुरक्षा त्यागनी ही पड़ती है और सबको एक न एक दिन यह करना पड़ता है जब पंछी तक हिम्मत जुटा लेते है तो फिर मनुष्य क्यूँ नहीं? मैंने सोंचा! आकाश में ऊँची उड़ान भरने के लिए कुछ तो कीमत चुकाई जा सकती है! या फिर चुकानी पड़ती है! और जो कोई इन कीमतों को चुकाता है वही पाता है कि आकाश सिमट कर बाहों में आ गया है! 
         
                                          ---- "यह कहानी मेरे दोनों बच्चों के लिए समर्पित है!"

22 टिप्‍पणियां:

  1. bahut bahut dhanyavad avadhoot ji....apki prerna se hi likhne ko sambal milta hai ....

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  2. अनंत आकाश, बड़ा रहस्यमयी

    काश हम इस अनंत को समझ पाते ...बहुत भावपूर्ण और प्रेरणादायी कहानी ...आपका आभार

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  3. .बहुत भावपूर्ण और प्रेरणादायी कहानी| आभार|

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  4. मेरे ब्लाग से आपके इस ब्लाग पर आकर और आपकी ये कहानी पढकर अच्छा लगा ।
    सच-मुच आकाश में उड़ने का सुख ही कुछ ऐसा है जिसके लिए परिवार का मोह घोंसले की सुरक्षा त्यागनी ही पड़ती है और सबको एक न एक दिन यह करना पड़ता है जब पंछी तक हिम्मत जुटा लेते है तो फिर मनुष्य क्यूँ नहीं?
    बहुत प्रेरणादायी सोच शामिल है आपकी इस कहानी में । मैं आपके इस ब्लाग को फालो कर रहा हूँ । उम्मीद करुंगा कि आप भी मेरा ब्लाग फालो करें जिससे कि एक दूसरे की रचनाएं परस्पर ज्ञानवर्द्धन करवाती रह सकें । धन्यवाद... मेरे ब्लाग नजरिया से आप परिचित हैं ही-
    http://najariya.blogspot.com/
    और हाँ आपकी एक रचना हुक्के के शौक से सम्बन्धित लग रही है । आप मेरे इसी ब्लाग पर "नया धंधा - नये शौक" भी अवश्य पढें ।
    उम्मीद है इस माध्यम से आपसे मुलाकात होती रह सकेगी । पुनः धन्यवाद सहित...

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  5. ऐसा ही होता है सुमन जी. असल में यही नियति है, अब जबकि काम और पढाई के सिलसिले से बच्चे बाहर निकलने लगे हैं, तब लगभग हर घोंसला खाली ही है, या खाली होने के इन्तज़ार में है. सुन्दर मार्मिक कहानी.

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  6. bahut bahut dhnyavad vandana ji, aap thik kahati hai isi khalipan ko mayine kahani se bharne ki kosish ki hai...

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  7. "आकाश में ऊँची उड़ान भरने के लिए कुछ तो कीमत चुकाई जा सकती है! या फिर चुकानी पड़ती है! और जो कोई इन कीमतों को चुकाता है वही पाता है कि आकाश सिमट कर बाहों में आ गया है!"

    वाह, सुमन जी,
    पहली बात तो आपकी लेखनी में इतना प्रवाह और खिंचाव है की पाठक बंध सा जाता है ,दूसरी बात आपने ज़िन्दगी की सच्ची कहानी बड़ी ही सहजता से मुखरित किया है !
    आभार !

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  8. मानव जीवन की कहानी भी ऐसी ही है।
    सराहनीय आलेख। प्रभावकारी लेखन के लिए बधाई।
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    कृपया पर्यावरण संबंधी इस दोहे का रसास्वादन कीजिए।
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    शहरीपन ज्यों-ज्यों बढ़ा, हुआ वनों का अंत।
    गमलों में बैठा मिला, सिकुड़ा हुआ बसंत॥
    सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी

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  9. श्रम ही सफलता की कुंजी है । जो समझ लेते हैं , वो ही आकाश की बुलंदियों कों छूते हैं।

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  10. आप बहुत संवेदनशील हैं, ईश्वर आपके दिल को ना दुखने दे यही कामना है !

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  11. जीवन को नई ऊर्जा देती कहानी....... बहुत सुंदर लिखा है आपने.....

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  12. बहुत अच्छी बात बताती कहानी .....

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  13. आकाश में ऊँची उड़ान भरने के लिए कुछ तो कीमत चुकाई जा सकती है! या फिर चुकानी पड़ती है! और जो कोई इन कीमतों को चुकाता है वही पाता है कि आकाश सिमट कर बाहों में आ गया है!

    बहुत सुंदरता से बुना है ताना बाना ...संदेशात्मक कहानी ...

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  14. ये कहानी बहुत ही प्रेरक है और आपके पर्यावरण के प्रति प्रेम का भी संकेत देती है. बहुत सुन्दर है.

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  15. aapki kahani se apna ped neem ka yad aagaya jo 12 july 2010 kee barish me gir gaya aisee bahut see chidiyan us par rahi aur aati rahi par ab koi chidiya nahi dikhti kyonki unka ped bhi chala gaya.bahut marmik kahani kintu aapke drishtikon se bahut prerak kahani .badhai.

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