शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

एक मनुष्य के भीतर अच्छाई बुराई दोनों की संभावनायें है !

बच्चा जब जन्म लेता है तो साथ में जीवन को परमात्मा के उपहार के तौर पर लाता है ! उसकी चेतना बिलकुल कोरे कागज के समान होती है ! और लोग उसपर अपने अपने सहूलियत के हिसाब से एक नाम का ठप्पा, एक जाती ठप्पा, एक धर्म का ठप्पा, एक देश का ठप्पा लगा देते है ! और जैसे जैसे वह बच्चा बड़ा होने लगता उसमे यह संस्कार कूट कूट कर भर दिया जाता है कि जरुरत पड़े तो इन ठप्पों की खातिर अपनी जान दे देना ! उसे कभी यह अहसास नहीं करवाते की तुम्हारी जान इन सबसे ऊपर है तुम्हारा जीवन सबसे कीमती है ! और बच्चा उन्ही संस्कारों की वजह से जिंदगी भर एक दुश्चक्र में फंस कर परमात्मा के दिए हुए उस जीवन रूपी कीमती उपहार का क्या हश्र कर लेता है इसी संदर्भ में मुझे ओशो की सुनाई हुई यह कहानी बहुत प्यारी लगती है !

किसी देश में एक चित्रकार था ! वह जब अपनी युवावस्था में था तो सोचा कि मै एक ऐसा चित्र बनाऊं, जिसमे भगवान का आनंद झलकता हो ! मै ऐसी दो आँखे चित्रित करूँ जिनमे अनंत शांति झलकती हो ! मै एक ऐसे व्यक्ति को खोजूं जिसका चित्र जीवन के जो पार है, जगत के जो दूर है उसकी खबर लाता हो ! और वह अपने देश के गांव-गांव घूमा, जंगल-जंगल छान मारा और आखिर एक पहाड़ पर एक चरवाहे को उसने खोज लिया ! उसकी आँखों में कोई झलक थी ! उसके चेहरे की रूप-रेखा में कोई दूर की खबर थी ! उसे देखकर ही लगता था कि मनुष्य के भीतर परमात्मा भी है ! उसने उसके चित्र को बनाया ! उस चित्र की लाखों प्रतियां गांव-गांव, दूर-दूर के देशों में बिकी ! लोगों ने उस चित्र को घर में टांगकर अपने को धन्य समझा !

फिर बीस वर्ष बाद, वह चित्रकार बूढ़ा हो गया था ! और उस चित्रकार को एक ख़याल और आया … जीवन भर के अनुभव से उसे पता चला था कि आदमी में भगवान ही अगर अकेला होता तो ठीक था, आदमी में शैतान भी दिखाई पड़ता है ! उसने सोचा कि मै एक चित्र और बनाऊं, जिसमे आदमी के भीतर शैतान की छवि हो, तब दोनों चित्र पुरे मनुष्य के चित्र बन सकेंगे ! वह फिर गया बुढ़ापे में जुआघरों में, शराबघरों में, पागलघरों में, उसने खोजबीन की उस आदमी की जो आदमी न हो, शैतान हो ! जिसकी आँखों में नरक की लपटे जलती हो, जिसके चहरे की आकृति उस सबका स्मरण दिलाती हो, जो अशुभ है, कुरूप है, असुंदर है ! वह पाप की प्रतिमा की खोज में निकला ! एक प्रतिमा उसने परमात्मा की बनायी थी, वह एक प्रतिमा पाप की भी बनाना चाहता था ! और बहुत खोजने के बाद एक कारागृह में उसे एक कैदी मिल गया ! जिसने न जाने कितनी हत्याएं की थी और जो थोड़े ही दिनों के बाद मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था ! फांसी पर लटकाया जाने को था ! उस आदमी की आँखों में नरक के दर्शन होते थे, घृणा जैसे साक्षात थी ! उस आदमी के चहरे की रुपरेखा ऐसी थी कि वैसा कुरूप मनुष्य खोजना मुश्किल था ! उस चित्रकार ने उसका चित्र बनाया ! जिस दिन उसका चित्र बनकर पूरा हुआ, वह अपने पहले चित्र को भी लेकर कारागृह को आया और दोनों चित्रों को पास-पास रखकर देखने लगा कि कौन-सा चित्र श्रेष्ठ बना है ! तय करना मुश्किल था ! चित्रकार खुद मुग्ध हो गया था ! दोनों चित्र अदभुत थे ! कौन-सा श्रेष्ठ था, कला की दृष्टी से, यह तय करना मुश्किल था ! और तभी उस चित्रकार को पीछे किसी के रोने की आवाज सुनाई पड़ी ! लौटकर देखा ,तो वह कैदी जंजीरों में बंधा रो रहा है, जिसकी उसने तस्वीर बनायीं थी ! चित्रकार हैरान हुआ उसने कहा कि मेरे दोस्त तुम रो क्यों रहे हो ? चित्रों को देखकर तुम्हे तकलीफ हुई ? उस कैदी ने कहा इतने दिनों तक छिपाने की कोशिश की, लेकिन आज मै हार गया हूँ ! शायद तुम्हे पता नहीं कि पहली तस्वीर भी तुमने मेरी ही बनायीं थी ! ये दोनों तस्वीरें मेरी ही है !
कहने का सार बस इतना-सा है कि एक मनुष्य के भीतर अच्छाई बुराई दोनों की संभावनायें है बहुत कम मनुष्य सौभाग्यशाली होते है जो अपने भीतर अच्छाई को उभार पाते है !

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

डायरेक्ट मार्केटिंग ...

प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति पांच हजार के हिसाब से दो दिवसीय आध्यत्मिक शिविर था हमारे शहर में, पहले दिवसीय प्रवचन के अंत में स्वामी जी ने अपनी लिखी हुयी किताबों के ढेर की ओर इशारा करते हुए भक्तों से कहा … "कल के कोर्स के लिए मेरी लिखी दो किताबे खरीदनी जरुरी है प्रति किताब की कीमत मात्र २५०/- रुपये है ! इसके आलावा किसी रिश्तेदारों, मित्रों को उपहार स्वरूप भी किताबे खरीदना चाहो तो खरीद 
सकते हो" ! स्वामीजी की बात का असली मकसद जानकर कई सारे भक्त नाराज हो गए उनमे हमारे एक प्यारे मित्र भी शामिल थे जो यहाँ के High Court में अपनी प्रैक्टिस करते है कुछ ज्यादा ही नाराज हो गए परिणामस्वरूप अपने माल (किताब) की डायरेक्ट मार्केटिंग कर रहे स्वामी जी ने सदा के लिए एक अच्छे भक्त (ग्राहक) को खो दिया !
कहने का मतलब इतना ही था की इन आध्यामिक शिविरों का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के जीवन को ध्यान संपन्न प्रेम संपन्न बनाकर रूपांतरित करना न होकर केवल अपना व्यापर चलाना मात्र होता है !